Sunday 27 June 2010

नाम में क्या रखा है ?

जी, क्यों नहीं रखा है नाम में कुछ ? लोग कैसे झट से कह देते हैं की ' अजी नाम में क्या रखा है '. कितना आसान है यह सब कुछ कहना...पर यदि आपका वाकई में नाम बिगड़ चुका है बचपन से तो बड़े होकर उसी नाम से बुलाये जाने पर कितनी तकलीफ होती है और सहना कितना मुश्किल होता है यह वही इंसान जान सकता है जो इस तकलीफ को भुगत चुका हो वर्ना..'' जाके पैर न गई बिंवाई, वह क्या जाने पीर पराई '' वाली बात है. अब आप पूछेंगें की मुझे कैसे पता ? जी...तो...बताना ही पड़ेगा की यह आप-बीती भी है. मैं उन गलियारों से गुजर चुकी हूँ जहाँ बचपन में किसी ने मेरे बिगड़े हुये नाम को लेकर मुझे चिढ़ाया या फिर सहानुभूति दिखाई तो दोनों तरह से ही बेचैनी और तकलीफ होती थी. अब चूँकि, यहाँ फेस बुक पर हम सब दोस्त हैं तो आइये कुछ अपने नाम से जुडी पीड़ा को भी शेयर कर लिया जाये...कहते हैं की दोस्त ही असली दर्द को समझ सकते हैं..सच में मेरे नाम के साथ एक बड़ा हादसा हो गया था जिसे अब भी भुगत रही हूँ...लेकिन जब मैंने बड़े होकर कुछ समझदारी से काम लिया तो दर्द गायब होने लगा और अब किसी हद तक गायब हो गया है. मुझे पता है की मेरी दास्तान सुनकर और लोग चौकन्ने हो जायेंगे, और मेरी भी यही सलाह है की हो भी जाना चाहिये. तो अब मैंने अपने आप ही अपनी दुखती रग पर ऊँगली रख ही दी है तो लाओ उभर आये दर्द को भी सबकी सहानुभूति से कम कर लूं. लेकिन क्या कम हो सकेगा ?..खैर, अब आप सबके मन में उथल-पुथल हो रही होगी की ऐसा क्या हादसा हो गया मेरे नाम के साथ जो मैं अपना दुखड़ा लेकर आ बैठी. तो चलो अब सबका सस्पेंस दूर करुँ..कहानी जरा लम्बी है पर कोशिश करती हूँ संछिप्त में बताने की...हुआ यूँ की मेरा जूनियर स्कूल घर के पास होने से सभी टीचरों को मेरा घर पर बोला जाने वाला नाम धीरे-धीरे पता लग गया...उसके बाद फिर कब, क्यों और कैसे वह सब मुझे शन्नो ( जी हाँ, अब इसी नाम से जानी जाती हूँ और इसी नाम का रोना रो रही हूँ ) कहकर बुलाने लगीं. और मैं इस बात से बिलकुल बेखबर और बेफिक्र थी और सोचती थी की हाजिरी के रजिस्टर में तो मेरा असली नाम ही लिखा होगा..लेकिन असल में जब हाजिरी के समय मेरे नाम को पुकारा जाता था तो मुझे नहीं पता था की वाकई में रजिस्टर में भी स्कूल में मेरी माँ जो नाम लिखा आईं थीं, वह बदल चुका था. और वह नाम था..स्नेहलता( मन फिर से बिलखने लगा है लेकिन मैं काबू में कर रही हूँ ). और असलियत एक दिन सामने आ गई जब मुझसे हाई स्कूल में आने पर एक टीचर ने पूछा की यह मेरा निक नेम है या..तब माथा ठनका और पता लगा की रजिस्टर में तो लिखा हुआ है..शन्नो, बल्कि आठवीं कक्षा का बोर्ड का इम्तहान होने से उसके प्रमाणपत्र पर भी चिपक गया था यही नाम.

सदमें के बाद सदमा या यूँ कहिये की '' एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा ''...मतलब यह की रजिस्टर में तो लिख ही दिया था ऊपर से प्रमाणपत्र पर भी..लेकिन मेरे माता-पिता पर इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई. क्योंकि प्रमाण-पत्र पर नाम बदलवाने के लिए कुछ झंझटों का सामना करना पड़ता सो हम इसी नाम को झेलते रहे..और झींकते रहे...और उससे भी बदतर यह की घर में भाई-बहन से कभी झगड़ा हुआ तो गायत्री मन्त्र में मेरे नाम का प्रयोग होने से उस मन्त्र को गाकर वह लोग मुझे चिढ़ाना शरू कर देते थे. उन सबको डांटा तो खूब जाता था पर किसी पर कोई असर नहीं होता था. मुझे तसल्ली देने के लिए मेरे माता-पिता कहते थे की यथा नाम तथा गुण..पर अपने मन को तसल्ली ही नहीं होती थी और मन चुपके-चुपके रोता था...

अब सुनिये मेरे नाम की कहानी का दूसरा पहलू ...वह यह की शादी के बाद जब यहाँ लंदन आई और सर्विस करने लगी तो मेरा नाम छोटा होने के कारण सबको बहुत भाया. तो अपने को बड़ी ख़ुशी हुई जब मुझे सब शानो कहकर बुलाने लगे. तब मैंने अपने दिल को तसल्ली देते हुये सोचा की अरे...मेरा नाम तो जरा फैशनेबिल सा हो गया है. फिर क्या कहने ? मन हुलसित सा हो गया...चहकने लगा ख़ुशी से. थैंक गाड ! वर्ना मानसिक परेशानी हर दिन बनी ही रहती नाम को लेकर. है ना ?

यह तो रही अपने नाम की गाथा....लेकिन आज को भी कई जगह जो माता-पिता अपने बच्चों को टिल्लू, पिल्लू, लल्लू, गुल्लू, सल्लू ( सलमान जी, जरा मुझे क्षमा करियेगा, प्लीज़! ) गुड्डी, चंगू-मंगू , चन्नू-मुन्नू , चिंकी, पिंकी, बबलू, गुड्डू, अन्नू, घुन्नू, गप्पू, पप्पू, टप्पू, चप्पू, चिंतू, मिंटू, बंटी, संटी आदि...और भी ना जाने कितने ही अंट-संट नामों से यदि बुलाते हों तो प्लीज...उन पर तरस खाकर उनके भविष्य की चिंता करते हुये बड़े होने से पहले ही उनके असली नाम से बुलाना शुरू कर दीजिये. एक जान-पहचान के लोगों में उनकी माला नाम की लड़की का नाम स्कूल में मल्लू लिखते-लिखते बच गया. वर्ना आज वह भी रोना रो रही होती अपने नाम का. और रोहित का नाम घर पर प्यार से लल्लू था. कुछ लोग अब भी उसे लल्लू कहने से बाज नहीं आते...लेकिन लल्लू भी अब बहुत चालाक हो गये हैं...लल्लू कोई कह दे तो उस नाम से जबाब ही नहीं देते. फिर आखिरकार झींक कर लोग जब रोहित नाम से बुलाते हैं तब रोहित तुंरत जबाब देते हैं. एक जगह किसी के यहाँ टिल्लू थे..तो उनके घर में सब लोग हाँक लगाते थे..'' अरे ओ टिलुआ कहाँ है रे..'' और टिल्लू ख़ुशी-ख़ुशी भागते हुए आ जाते थे..लेकिन बाद में बहुत तकलीफ हुयी होगी बड़े हो जाने पर अगर टिल्लू इसी नाम से चिपके रहे होंगे..खैर, अपनी-अपनी किस्मत. तो कहने का तात्पर्य यही है की लाड़-प्यार का नाम अपनी जगह एक हद तक, और असली नाम अपनी जगह जिन्दगी भर बरकरार रहे तो अच्छा हो. आजकल के माँ-बाप इतने भी नादान नहीं होते की स्कूल में लिखे नाम पर चौकन्ने ना रहें पर अगर उम्र बढ़ने के साथ बच्चे को घर के नाम से ही बुलाते रहेंगे तो उन्हें दूसरों के सामने सकुचाहट का सामना भी तो करने से कितनी तिलमिलाहट सी होगी...या नहीं ?
ना सोचते-सोचते भी अक्सर सोचना ही पड़ता है की नाम की गहराई को अगर देखो तो क्या-कुछ नहीं होता नाम में...मन का चैन, गर्व, तसल्ली सब कुछ तो होता है...

लेकिन एक गुजारिश है की आप लोग मुझे गलत ना समझें और ना ही तरस खाकर हमें अब कोई दूसरा नाम दें, प्लीज़। फिर मैं अपने आप को पहचान नहीं पाऊँगी...क्योंकि मैं अब अपने इसी नाम की आदी हूँ...वो तो दिल में कभी- कभार टीस उठती थी अतीत में...तो सोचा की मित्र होने के नाते आप लोगों को भी ये कहानी बता दूँ.

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