Wednesday 25 August 2010

फेसबुक पर रक्षाबंधन का डिनर और अतीत की एक घटना ( या दुर्घटना )...

दो अजीब बातों का ताल-मेल ???? हाँ, कुछ ऐसी ही बात है..एक फेसबुक पर मुलाकात है..दूसरी अतीत की वारदात है.

तो सुनिये सब लोग कि बहन का दिल तो टूक-टूक हो जाता है जब भाई लोग फेसबुक पर एक बहन के परोसे खाने की तस्वीर देख के लार टपकाते हैं और सचमुच में खा नहीं पाते हैं..खाना देखते हुये भी खाने से दूरी..कितनी लाचारी..कितनी मजबूरी..और शायद मुझे मन में कोसते भी होंगे सोचकर कि '' देखो कैसे खाने की चीज़ों को दिखा-दिखा कर मन जला रही है '' लेकिन अपने भाइयों के लिये रक्षाबंधन पर कुछ तो करना ही होता है बहन को सो मैंने सोचा कि सबकी तबियत हरी हो जायेगी..इसलिये डिनर देते समय मन खुशी से बड़ा फूला-फूला था..फिर जब महसूस किया कि ये बेचारे तो असली खाना चाहते हैं तो अफ़सोस हुआ और मन मुरझा सा गया. मन जलाने के उद्देश्य से पार्टी नहीं दी थी, प्यारे भाइयों..मैंने तो सच्ची श्रद्धा से आप सबको निमंत्रित किया था..किन्तु यहाँ फेसबुक पर पार्टी की कहानी अलग टाइप की होती है..इसे आप लोग अपनी किस्मत कह सकते हैं..और मन जलाने वाली बात से अपने बचपन से जुड़ी वो अतीतकाल की सच्ची स्टोरी भी याद आ गयी जब भगवान के यहाँ से मेरी काल आते-आते रह गयी..ये स्टोरी कोई मजाक की बात नहीं है..हाँ... तो जब मैं करीब ११ साल की थी तो मेरी माँ अपने मायके मेरे बीमार मामा को देखने गयी मुझे व मेरे छोटे भाइयों को भाभी के हवाले छोड़कर.

और एक दिन मुझसे तीन साल छोटे भाई ने स्कूल से आकर मुझसे खाना माँगा..मैं मूड में नहीं थी..मैंने कहा कि अपने आप खाना ले लो तो उसने रसोई में जाकर फौरन चूल्हे की जलती लकड़ी उठाई और मेरी तरफ लपका..भाभी मुँह बाये ये सब देख रही थी..तो मुझे कुछ खतरे का आभास हुआ..सोचा कि इसके इरादे कुछ ठीक नहीं हैं..शायद ये मुझे दहकाना चाहता है..और वाकई में सीरिअस है ..ऐसा आभास होते ही मैं सर पर पैर रख कर भागी अपनी जान बचाने को..मैं चिल्लाई कि भाभी बचाओ मुझे...भाभी ने बहुत रोकना चाहा उसे पर उनकी नहीं चली..उसने नहीं सुनी उनकी..वो दुष्ट अपनी जिद पर अडिग रहा और मुझे ललकारता रहा कि आ आज तुझे मार डालूँगा..मैं आगे-आगे और वो मेरे पीछे-पीछे..बिल्ली भाग चूहा आया वाला खेल जैसे वहाँ चालू हो गया..उस पर जुनून चढ़ा था कि आज जीजी को खतम करके रहूँगा..अपने को बचाने के चक्कर में मेरे दिमाग में तरकीबें बहुत फास्ट आने लगीं...मैं ऊपर छत पर भागी अपनी जान लेकर..तो वह भी ऊपर आ गया फुर्ती से..और एक दीवार के चारों तरफ हम दोनों भाई-बहन परिक्रमा करने लगे भागते हुये एक दूसरे के पीछे..अब हँसी आती है..लेकिन उस दिन की सोचती हूँ तो लगता है कि जैसे वो घटना कुछ दिन पहले ही घटी हो..मन में उन पलों को याद करती हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं..मैंने राम-राम जपना शुरू कर दिया कि लगता है कि अब नहीं बचने वाली मैं आज ये मुझे भस्म कर देगा..उस भाई की गुस्सा बहुत तेज थी..मुझसे ३ साल छोटा था तो क्या हुआ..भाई जब सताते हैं तो दुष्टता पे उतर आते हैं..ये जाना-माना सत्य है..हर बहन का निजी अनुभव होता है इन शैतानो का..हा हा...

खैर, किसी तरह मैं भाग कर घर के सामने वाले पंडित जी के यहाँ छुप गयी जाकर...कहा, '' चाचा-चाची मुझे अपनी कोठरी में बंद कर दो..आज मुझे अशोक मार डालेगा अगर तुमने मुझे नहीं छुपाया यहाँ कहीं..बात बाद में पूछना..मैं उसे चकमा देकर आई हूँ..और शायद वो सूंघता हुआ आता ही होगा यहाँ, और बाहर से साँकल डाल कर ताला भी डाल लेना..वरना तुम्हारे यहाँ से आज एक लाश निकलेगी. '' चाचा-चाची ने कहा कि, '' हाय-हाय लल्ली ऐसी बुरी बातें न कहो अपने लिये, बुरा हो तुम्हारे दुश्मनों का ''..लेकिन मुझे अपनी जान की पड़ी हुई थी और उनकी बेफजूल की बातों का जबाब देने की फुर्सत नहीं थी. उनसे मैंने प्रार्थना की कि वो मुझे जल्दी से अपनी कोठरी में बंद कर दें. उन्होंने मुझे कमरे में बंद करके बाहर से साँकल मारी और ताला डाल दिया और मैं डर के मारे एक कोने में दम साध के बैठ गयी..तभी भाई भी आ गया उनके यहाँ और पूछ-ताछ करने लगा कि मैं उधर तो नहीं आई वो लोग सकपका के बोले, '' नहीं लल्ला, हमने तो उसको नहीं देखा आज लेकिन लल्ला बात क्या है. '' तो भाई की आवाज़ आई, '' जरा ये कोठरी तो खोलो वो इसमें शायद छुपी होगी. '' उन लोगों ने कहा कि कोठरी में कोई नहीं है उसमे ताला पड़ा है..फिर भी उसने खुलवा ली और मैंने जल्दी से वहाँ तह किये बिस्तरों के पीछे अपने को छुपा लिया और मन में सोच लिया कि बस अब आखिरी घड़ी आ ही गयी अब ये मेरा इंतकाल करके ही दम लेगा...सोचने लगी कि ये एक राक्षस है जो भाई के रूप में पैदा होकर मेरी जान लेना चाहता है..और मुझे खुद अपनी रक्षा के लिये जान बचाने भागना पड़ रहा है इधर से उधर..अब तो राम नाम सत्य ही समझो मेरा...उसने वहाँ ताका-झाँका और तसल्ली करके चला गया...उन लोगों ने बाहर के दरवाजे को बंद करके कोठरी खोली और मुझसे सब कहानी पूछी कि क्या हुआ..मैंने रोते-रोते सब बताया कि मेरी अम्मा तो मामा के यहाँ गयी हैं और इसने मुझे दुखी करना शुरू कर दिया है..तो वो मेरी कहानी सुनकर सुन्न से हो गये..मुझे शाम तक छुपना पड़ा उनके यहाँ अपनी जान बचाने के लिये..फिर रात में जब पिता व बड़े भाई आये तो मैं घर लौटी..और अगले दिन बड़े भाई ने उसको मुर्गा बनाया..हा हा..हाँ, ये बात भी बिलकुल सच है..वो केवल बड़े भाई से ही डरता था..तब उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हुई और गुस्सा शांत हुआ.

तो सारांश ये है कि भाई उम्र में छोटा हो या बड़ा कुछ कहा नहीं जा सकता सब ही समय-समय पर अत्याचारी होते हैं, रुआब झाड़ते हैं, आलसी होते हैं..बहनें घर का काम करती हैं...माँ की डांट खाती हैं इन भाइयों के लिये...उनकी फटकार और दुत्कार सुनकर दांत किलस कर रह जाती हैं...लेकिन...लेकिन हम बहनें फिर भी अपनी आदत से मजबूर हैं..अपने भाइयों का भला मनाती हैं..उनकी धौंस में रहती हैं..कभी-कभी इतना रुआब रखते हैं कि अकल काम करना बंद कर देती है..थर-थर भी कांपना पड़ता है जब आर्डर देते हैं...वरना धमकी मिलती है..हर समय अपनी अकलमंदी झाड़ते रहते हैं और हुकुम चलाते हैं..कभी चोटी खींचना और कभी चिढ़ाना आदि तो मामूली बाते हैं. भाइयों से किसी मुसीबत के समय अपनी रक्षा करवानी हो तो उस समय के इंतज़ार में हम बहनें ये सब सहती रहती हैं..सहना पड़ता है..लेकिन इस कलियुग में तो अधिकतर बहनें ही उनकी रक्षा करती नजर आ रही हैं..समय आने पर उन लोगों का कहीं पता नहीं लगता या बहाने कर देते हैं. खैर, अब लाओ ये भी बता दूँ कि आज को वो छोटा भाई जब भी उस दिन की घटना को याद करता है तो बड़ा शर्मिंदा महसूस करता है..अक्सर कहता रहता है, '' हाय, अगर उस दिन जीजी तुम्हें मेरे हाथों से कुछ हो गया होता तो मैं कभी भी उस पाप से मुक्त ना होता और अपने को माफ नहीं कर पाता. ''

तो मेरा कहना है कि बिधि के बिधान को इस संसार में कोई भी नहीं टाल पाया है..मेरा राम-नाम सत्य होते-होते बचा...मेरी किस्मत में और जीना लिखा था तो मैं जिन्दा हूँ और आज को आप सभी के साथ फेसबुक पर अपने हाथों से डिनर बनाकर खिलाने का लुत्फ़ उठा रही हूँ..अब ये ना कहियेगा कि डिनर दिखा के दिल जला रही हूँ..हा हा हा हाफेसबुक की पार्टी होगी तो खाना देखने ही के लिये तो होगा..तो फीस्ट योर आइज़ ( आँखें ) वाली बात होगी ही..जैसा कि फेसबुक के मेरे एक बुद्धिमान भाई का भी कहना है कि '' न इस खाने को सूंघ पाओ, न चाट पाओ और न ही खा पाओ ''..अब इतने बुद्धिमान इंसान ने ये कहा है तो सही ही है..( ना भी कहते तब भी यही सही होता..हा हा ) लेकिन इसमें अपना भी तो कोई कसूर नहीं. फेसबुक की पार्टियों में यही तो फेस करने की समस्या है..हम जो अपने गरीबखाने में जुटा सके वो सब आप भाइयों के सामने हाज़िर कर दिया..अब दिक्कत है तो बस मुँह में ले जाने की..हा हा हा हा..आप सभी को ढेरों शुभकामनायें.

Friday 20 August 2010

देश में नयी क्रांति का आभास ?

अगर ईमानदारी से कहूँ तो मुझे कभी भी राजनीति में इतनी दिलचस्पी नहीं रही..लेकिन पता नहीं क्यों जिस देश में मैंने जन्म लिया और दूर बैठ कर उस देश के लोगों की बढ़ती हुई समस्याओं के बारे में जरा भी सुनती हूँ तो मन विन्हल हो जाता है..बहुत दुख होता है सोचकर कि अंग्रेजों के हाथ से देश छुड़ाकर उस देश की सरकार या नेताओं ने अपने ही देश के लोगों को अपनी गंदी करतूतों से गुलाम बना दिया...हर जगह उनकी ही तूती बोलती है.

उनके हाथों में देश का वो हाल हो गया जैसे कि '' आसमान से गिरे तो खजूर में अटके '' कहने का मतलब कि अंग्रेजों से छुट्टी पायी तो देश की अपनी सरकार ने नाक मे दम कर दिया और जनता को गुलाम बना लिया. भारत में सरे आम भ्रष्टाचार की वजह से न जाने कितनी समस्याओं का जन्म हुआ है...देश को तरक्की पर पहुँचाने वालों के हाथ की बागडोर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है. सुनने में आया है कि करीब 90 % अफसर / बाबू और नेता लोग बेईमान हैं..जो अपना पेट भर कर चैन की डकारें लेते हैं..और वो कहते हैं ना कि जब किसी बात की हद हो जाती है तो जुनून अपने आप आ जाता है..और जब बढ़ता है तो कुछ होकर ही रहता है...जब नदी में बाढ़ आती है तो उसे रोकने का इंतजाम करना होता है..जब इंसान खाना जरूरत से अधिक खा ले तो बीमार हो जाता है या बेचैनी बढ़ जाती है तो आगे से उसके बारे में सावधानी बरतनी होती है..उसी प्रकार से ऐसा महसूस हो रहा है कि देश में बढ़ती हुई बुराइयों में उफान आ रहा है और हर उम्र के लोगों के दिल में खलबली मची है कि कब और किस तरह से इनका अंत किया जाये. खाली देश सुधार की बातें करके हाथ पर हाथ रखकर बैठने से तो काम नहीं चलने वाला...जब-जब किसी बुराई का अंत करना होता है तब क्रांति की हवायें चलने लगती हैं. तो अब खासतौर से भारत में युवा पीढ़ी के मन में जो आक्रोश बढ़ रहा है उसकी गर्मजोशी की हवा यहाँ बैठे हुये ही महसूस कर सकती हूँ ..और अब वह आग का रूप धारण करती हुई दिख रही है. लगता है कि अब कुछ होकर ही रहेगा..शायद एक नयी क्रांति का जन्म..जिसका सभी को आभास हो रहा है लेकिन कब, कौन और कैसे इसकी शुरुआत करेगा..कौन इसमें आगे बढ़कर इस पावन यज्ञ में पहली आहुति डालेगा मतलब कि एक संगठन बनाकर किसी सुधार को करने की पहली प्रतिक्रिया देगा..यह देखने का सभी को इंतज़ार है. गंदी राजनीति ने देश में पता नहीं कितने रोगों को जन्म दिया है और अब वह गंभीर बनकर विकृत रूप धारण कर चुके हैं..जो जनता से सहन नहीं हो पा रहा है..देश वासियों में उत्तेजना बढ़ती जा रही है इन बुराइयों के विरुद्ध. जिंदगी के हर क्षेत्र में सुधार के लिये आंदोलन की जरूरत पड़ी है..तभी दशा सुधरी है..वर्ना समझने वालों के कान पर जूँ नहीं रेंगती. हम आजादी के एक साल और आगे निकल आये हैं और इस आजादी का फायदा सबने तरह-तरह से उठाया..किसी ने अपना घर बनाया किसी को बर्बाद करके तो किसी ने नफरत की आग में जलकर अपनों का ही घर तोड़ा. दुश्मन से पिंड छूटा तो खुद अपने ही देश में एक दुसरे के दुश्मन बन बैठे..सब अपने-अपने तरीके से लगे रहे सोचने में..स्वार्थी बनकर नफरत की ज्वाला भी भड़कने लगी..मिलजुलकर देशवासियों ने भी कोई ऐसी भावना नहीं रखी कि देश की परेशानियों का निराकरण हो सके..धीरे-धीरे देश अनैतिकता, आतंकवाद, गरीबी, अत्याचार, भ्रष्टाचार से दूषित होता गया.

यह बात सही है कि हम अपने मुँह से ही कहकर गर्वित होते रहते हैं भारतीय होने पर..लेकिन अपने ही देश में उसके प्रति अनर्थ होने से बचा नहीं पाते..सालों हो गये फिर भी..तो कहाँ से हम आजाद हैं..चेहरा सचाई छुपा नहीं सकता. सी एम, पी एम सब भ्रष्ट उनके चमचे भ्रष्ट और चमचों के चमचे भ्रष्ट..वो जनता को देते कष्ट..कुछ दुष्ट तो कुछ महा दुष्ट..अपनी जनता को करते हैं रुष्ट..जनता अपनी सरकार को इष्टदेव का स्थान देती है लेकिन सरकार अपनी आँखें मूंदकर बिल्ली की तरह दूध पीती रहती है कि उसे कुकर्म करते हुये कोई देख नहीं पायेगा..सरकार की नीति है अपना पेट भरो और सबको आड़ में करो..जो पैसा देते हैं टैक्स का वो टापते रह जाते हैं और किसी का सहारा न पाकर सब कुछ सहते जाते हैं..बिजली के बिना देश अन्धकार में डूब रहा है, पानी की समस्या से अलग त्राहि-त्राहि..और गरीबी, मजबूरी, मँहगाई, बेरोजगारी, लाचारी से चोरी, लूट-खसोट की समस्यायें..अबलाओं तक का अपहरण हो रहा है. ये सब क्या हो रहा है अपने भारत देश में सोचकर दिमाग बौखला उठता है..क्या इसे ही आजादी कहते हैं..ये तो आजादी का नाजायज़ फायदा उठाना हुआ..और अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार कर बिलबिलाना हुआ.

लेकिन कब तक चलेगा यह सब ? कब तक सहेंगे लोग ? क्या यही आजाद देश का सपना था अपने बापू का ? लगता है कि शांति के लिये अब दूसरी क्रान्ति आने वाली है..जिसकी आँधी बबंडर का रूप धारण कर रही है...देश अब अपनों से ही गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है...अपने देश की गरिमा बनाये रखना, उस अधूरी आजादी को पूर्ण रूप देना अब इस देश के नौजवानों का काम है..व साथ में सभी उम्र के लोग अपनी क्षमता अनुसार इस यज्ञ में योगदान दें. स्वतंत्रता दिवस पर केवल तिरंगा लहरा देने भर से काम नहीं चलने का.

Thursday 19 August 2010

लंदन में 15 अगस्त 2010 का भारतीय स्वतंत्रता दिवस समारोह

इस बार फिर सोचने लगी थी कि 15 अगस्त के दिन हर साल की तरह यहाँ लन्दन में फिर चुपचाप पब्लिक के जाने बिना अपना भारतीय तिरंगा इंडिया हाउस में फहरा दिया जायेगा..जहाँ भारतीय दूतावास है...लेकिन क्या पता था कि इस साल यह कार्यक्रम कुछ फरक तरह से मनाया जायेगा...बस यूँ कहिये कि हमने जरा सी जिज्ञासा दिखाकर पूछतांछ की तो पता चला कि यहाँ लंदन में इस बार इतने सालों के बाद पहली बार हमारे भारतीय स्वतंत्रता दिवस को हाई कमिश्नर की तरफ से धूमधाम से मनाने का आयोजन रखा गया है...बस फिर क्या था हमने भी सोचा कि क्यों न वहाँ पहुँच कर स्वतंत्रता के इस पावन दिवस को मनाने का आनंद लिया जाये..और 11 बजे से चालू होने वाले कार्यक्रम के लिए हम लोग घर से निकल पड़े सुबह 9 बजे ही...क्योंकि लंदन में रहते हुये भी एरिया पर निर्भर करता है की कहाँ रह रहे हैं..उसी हिसाब से समय लगता है गंतव्य स्थान तक पहुँचने में...तो हम लोग 11 से पहले ही पहुँच गये '' इंडियन जिमखाना क्लब '' नाम की जगह...जहाँ ये उत्सव मनाया जाना था. वहाँ बाहर सड़क बुरी तरह ट्रैफिक से भरी थी और तमाम पुलिस तैनात थी सुरक्षा के लिये..तमाम लोग लंदन से बाहर के शहरों से भी आ रहे थे...गेट के अन्दर पहुँच कर सबने नजरें दौड़ायीं और भीड़ में खड़े होने के लिये अपना स्थान चुना..और इंतजार करने लगे कमिश्नर साहेब का..इंतज़ार करते हुये 11 बज गये फिर सवा 11 हुये..इस तरह इंतज़ार करते समय गुजरता गया और उनका कहीं पता नहीं..आप ही सोचिये कि कमिश्नर साहेब भारतीय होने के नाते लेट तो होंगे ही...जैसे कि हमारे यहाँ हर चीज की रिवाज है...भारत में ट्रेन आती है तो लेट या पहुँचती है तो लेट, शादी-ब्याह में दूल्हा की बारात पहुँचती है तो लेट, कोई भाषण देने जाता है तो लेट...प्रोफेसर आते हैं क्लास रूम में तो वो लेट..खैर, किसी तरह वह निश्चित समय के आध घंटा बाद अपनी तशरीफ़ लाये और बिल्डिंग की छत पर पहुँचे और फिर लोग-बाग फोटो की खींचा-खाँची में लग गये...हम साँस साधे उस पल का इंतजार करने लगे कि कब झंडा ऊँचा हो..उन्होंने फिर देर लगायी...कुछ गप-शप की कुछ V I P लोगों से हाथ मिलाते हुये और उसके बाद राम-राम करके झंडा ऊँचा करने का समारोह संपन्न किया..और फिर किसी महिला ने स्पीच दी..उन्हीं समस्याओं पर जिनके बारे में हम, आप सभी जानते हैं कि हमारे भारत को पराधीनता से मुक्त होने के बाद भी क्यों उन भयानक परिस्थितियों और समस्याओं से गुजरना पड़ रहा है जो हमें स्वतंत्र होने का आभास नहीं दिलाते और संभवतया हम भारतवासी इसके बारे में क्या कर सकते हैं कि देश की दशा सुधर सके..आदि-आदि...

और स्पीच के तुरंत बाद पार्क में लगे हुये पंडाल में और उसके बाहर भी खाने के जो तमाम स्टाल थे उनके चारों तरफ भीड़ से जगह भरने लगी...जहाँ शुद्ध शाकाहारी खाने का इंतजाम किया गया था..भारत के उत्तर, दक्षिण, गुजरात और पंजाब के तरह- तरह के स्वाद के खाने व मिठाइयाँ थीं साथ में चाय का इंतजाम और मिनरल वाटर की हजारों बोतलें और साफ्ट ड्रिंक जैसे कि कोका-कोला और फ्रूट जूस के पैकेट सब कुछ फ्री में..ये सारा कुछ इंतजाम लंदन के तमाम भारतीय रेस्टोरेंट के मालिकों की तरफ से स्वतंत्रता दिवस के सम्मान में फ्री किया गया. खाने की इतने चीजें थीं कि दो-चार चीजों को खाकर ही पेट भर जाये..लेकिन कुछ लोग जानते हुये भी कि सब नहीं खा पायेंगे फिर भी प्लेटों में सब भर लेते हैं और बाद को खाना जमीन पर फेंकते हैं या इधर-उधर चुपचाप रख देते हैं..और देखने पर सोचना पड़ता है की दुनिया में तमाम लोग इस खाने के लिये तरस रहे होंगे..तो यहाँ भी वही नजारा देखने को मिला. अच्छा हुआ कि वहाँ कोई पान का स्टाल नहीं था वर्ना लोग इधर-उधर पुचुर-पुचुर थूकते..कूड़ा तो अधिकतर डब्बे में डालने की वजाय जमीन पर डालते ही रहते हैं. भारतीय जहाँ भी जाते हैं अपनी आदतें तो साथ में ही ले जाते हैं ना...हाँ तो, खाना भी चल रहा था..और उधर दूर पर स्टेज पर भंगड़ा नाच-गाना शुरू हो गया..बताना जरूरी है कि यू. के. में भंगड़ा डांस और गाना बहुत पापुलर है...हम भी फटाफट पहुँचे देखने स्टेज के पास. देखा कि सब की सब कुर्सियाँ पहले से ही जब्त हो चुकी हैं..पंडाल में भी कुछ लोग एक कुर्सी पर बैठ कर अपने पैर पसारे चार कुर्सियों को घेर कर बैठे हुये थे पूछने पर पता लगा कि उनके साथ के कुछ लोग बाहर बैठे स्टेज का शो देख रहे हैं तो उनके लिये सुरक्षित रख छोड़ी हैं..कहने का मतलब कि बाहर भी वह कुर्सियों पर बैठे हैं और अन्दर वाली कुर्सियों को किसी की निगरानी में छोड़ गये हैं..आप लोग मतलब समझ गये होंगे कि हमारे देशवासियों की ये एक और अदा ( आदत ) है कि एक सीट की वजाय चार घेर लेते हैं चाहें दूसरे व्यक्ति को खड़े रहना पड़े..चलिये छोड़िये भी, हम सभी वाकिफ हैं इन बातों से...फिर हम जमीन पर आराम से पसर गये और थोड़ी ही देर में मौका देखते ही किसी के उठने पर उस चेयर पर जाकर आराम से जम गये..तो बात हो रही थी मनोरंजन की...स्टेज पर के मनोरंजन में प्रमुखता भंगड़ा दिखाया गया साथ में भरत नाट्यम और दूसरी प्रकार के डांस भी...यहाँ नीसडन नाम की जगह में लंदन का प्रसिद्ध '' स्वामी नारायण मंदिर '' के शिष्यों ने बहुत सुन्दर गाना गाकर तिरंगे को हाथ में लेकर डांस किया..तमाम सिंगर्स ने देशभक्ति के गाने गाये..जो दिल की गहराइयों में उतर गये और वहाँ का पूरा माहौल झूम उठा...तमाम बच्चे व बड़े लोग उठकर नाचने और गाने लगे गाने सुनकर..कितने लोग अपनी राष्ट्रीय तिरंगे की डिजाइन के कपड़े पहने घूम रहे थे..छोटे बच्चे तिरंगे पकडे हुये थे..और फोटो खिंचवा रहे थे..सारे बातावरण में उल्लास और उत्साह था..कुछ लोगों को पुरूस्कार बितरण किये गये जिनमें भारत से आई हुई एक क्रिकेट टीम भी थी उसमें वो लोग थे जिन्हें ढंग से दिखाई नहीं देता..सभी लोग नीली यूनिफार्म में थे..उस टीम ने इंग्लैंड को तीन बार मैच में हराया तो उस सम्मान में कमिश्नर नलिन सूरी जी ने टीम के हर व्यक्ति को अलग-अलग गिफ्ट के बैग दिये..उसके बाद भी गाने वगैरा चलते रहे और फिर करीब चार बजे कार्यक्रम का समापन हुआ.

एक बात बताना भूले ही जा रही थी..कि भारत पर मुफ्त में तमाम लिटरेचर भी बैग में भर कर ले जाने को दिया जा रहा था...मुंबई, चेन्नई, दिल्ली, गोवा, महाराष्ट्र, राजस्थान आदि जगहों की जानकारी के बारे में..उसके अलावा और भी बहुत कुछ..सभी लोगों को डिजाइनर पैक में पेड़े की मिठाई भी पकड़ाई जा रही थी...इस तरह सारा दिन फ्री का मनोरंजन हुआ..उसके बाद हमने घर की रास्ता पकड़ी...

ये मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर लो पानी
जो शहीद हुये हैं उनकी जरा याद करो क़ुरबानी.

नेहरु जी की आँखों में इस गाने को सुनकर आँसू आ गये थे..है ना..? जय हिंद !

लंदन में 15 अगस्त मनाना जख्मों पर नमक छिडकने जैसा है

भारत देश हमारा प्यारा
झंडा ऊँचा रहे हमारा...

जब से अपने भारत देश ने अंग्रेजों के चंगुल से मुक्ति पाई है उसमे एक साल और बढ़ गया है..15 अगस्त के दिन भारत के हर शहर, गाँव, गली-कूचे..देशभक्ति से ओत-प्रोत लोगों की बातों से गुंजित होंगे...गाने-फ़िल्में, डांस आदि के कल्चरल प्रोग्राम होंगे, स्पीच होगी और सड़कों पर तरह-तरह की वेश-भूषा में परेड निकलेंगीं...और लोग भीड़ में धक्का खाते हुये, या घर की छतों से उन्हें देखने का आनंद उठायेंगे...... जिन्हें दिल्ली जाकर भीड़ में शामिल होकर लालकिले पर झंडा लहराते हुये देखने का व प्राइम मिनिस्टर की दी हुई स्पीच सुनने का और परेड देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होगा वह अपने घर या चौपाल में बैठे टीवी पर ही देखकर दिल्ली में हुये उत्सव का आनंद लेने की कोशिश करेंगे. स्कूलों के बच्चे लाइन में खड़े होकर ( जैसा मुझे अपना बचपन याद आता है ) '' 'जन-गण-मन' और '' वन्देमातरम '' जैसे देशभक्ति के गाने गायेंगे..आसमान में पतंगें उड़ रही होंगी..क्या सीन होगा...और हम यहाँ बैठे हुए ज़ी टीवी पर उनकी कुछ झलकियाँ देखकर अपने देश के बारे में सोचकर अपनी आँखे नम करेंगें..क्योंकि यहाँ इतनी दूर रहकर टीवी की झलकियाँ ही तिरंगे को दिखाकर दिल में तरंगें पैदाकर हलचल मचाकर अपना गुजरा हुआ जमाना याद दिला देती हैं...इन तरंगों का भी उठना बहुत जरूरी है...कितने ही देशभक्त पतंगों की तरह देश पर कुर्बान हो गये. गाँधी जी ने, साथ में और भी तमाम देश-भक्तों ने पता नहीं क्या-क्या झेला देश की आजादी को प्राप्त करने के लिये और साथ में न जाने कितने और लोगों ने भी कुर्बानियाँ दीं जिनके नाम भी नहीं पता सबको.

लेकिन इतना सब कुछ हुआ..क्यों हुआ..देश को आजाद कराने के पीछे उन महान आत्माओं के सपने थे अपने देश की सुन्दर तस्वीर के. लेकिन लोग कैसे रहेंगे आजादी के बाद...और उनके इस दुनिया से जाने के बाद और उस आजादी का भविष्य में किस तरह इस्तेमाल किया जायेगा इसका उन लोगों को कोई अनुमान नहीं रहा होगा. जो गाँधी जी के सिद्धांत थे उनपर कितना अमल हो रहा है ? अहिंसा की जगह हिंसा का प्रयोग, शांति की जगह अशांति, बेईमानी, रिश्बतबाजी, हर जगह फैला आतंक, भ्रष्टाचार, दरिद्रता, अनैतिकता, पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव..और भी न जाने कितनी समस्यों से देश ग्रस्त हो चुका है...इनका निवारण करने की तरफ कौन से कदम उठे हैं ? गरीबी, अत्याचार, लोगों के प्रति अन्याय..किसी भी क्षेत्र में सुधार होता नजर नहीं आ रहा है...जनता टैक्स देती है लेकिन उसका सदुपयोग उनके इस्तेमाल के साधनों की तरफ नहीं बल्कि किसी और तरफ नाजायज रूप में खर्च होता है....

बिजली, सड़कें, गंदगी, पानी और महँगाई से सूखता लोगों का खून
लाचारी, मजबूरी, कानून का डर शांत कर देता है तब उनका जुनून.
इन सब बातों को लिखते हुए, जिनसे आप सब लोग मुझसे अधिक परिचित हैं, सोचती हूँ कि कुछ लोगों के दिल में ये ख्याल आ रहा होगा या जिज्ञासा हो रही होगी कि मैं आप लोगों को बताऊँ कि यहाँ यू. के. में 15 अगस्त का दिन कैसे मनाया जाता है..लेकिन आपको शायद ताज्जुब होगा कि इतने साल यहाँ रहने के वावजूद भी मैंने इस बात पर कभी गौर नहीं किया था..मैं इस तरह के समारोह के बारे में अनजान रही थी..इस बारे में कुछ विदित ही नहीं हो पाया था अब तक. एक तो अंग्रेज लोग हमारे भारतीय स्वतंत्रता-दिवस को क्यों मनाने लगे..ये तो वही बात होगी कि किसी के हाथ से सुई लेकर उसी की आँख में चुभो दो..मतलब ये कि उन पर ज़ोर दो कि तुम लोग हमारे भारतीय स्वतंत्रता-दिवस को क्यों नहीं मनाते इस देश में. अरे भाई, जो हमारा देश छोड़ने पर मजबूर हुये उनको याद दिलाकर जले में नमक छिडकने जैसा हुआ कि नहीं ये ? इस बारे में कोई जश्न यहाँ खुले आम नहीं होता. हमारे अपने आजादी-दिवस पर भारतीयों के लिये न कोई छुट्टी का दिन रखा गया है ( इनके अपने त्योहारों के दिन होते हैं जिन पर छुट्टी होती है ) न कोई झंडा लहराना, न परेड न स्कूलों में कुछ..और न ही लाइब्रेरी में हमारे स्वतंत्रता दिवस को इस देश में मनाने के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध है. लेकिन यहाँ कुछ जगहों पर जहाँ अधिक भारतीय रहते हैं वहाँ भारतीय लोग मिलकर किसी हाल वगैरा में लोकल काउंसिल की मदद से इस दिवस को मनाने का आयोजन रखते हैं..और लन्दन में भारतीय विद्या-भवन में भी इस अवसर पर समारोह मनाया जाता है जिसमे भारतीय नृत्य-गाना, सितार और तबला-वादन आदि का प्रोग्राम होता है. और भारतीय हाई कमिशनर '' रायल केनजिंगटन पैलेस गार्डेन '' नाम की बिल्डिंग के बाहर अपने देश का तिरंगा फहराता है और वहाँ के सुन्दर गार्डेन या हाल में स्पीच देता है...उसके बाद वहाँ पर कुछ कल्चरल प्रोग्राम होता है नाच-गाना इत्यादि...और खाने आदि का कार्यक्रम होता है...इस बार का प्रोग्राम है: 15 अगस्त को 10.30-3.00 तक के प्रोग्राम में 11 बजे सुबह भारतीय हाई कमिशनर नलिन सूरी अपने देश का तिरंगा ऊँचा करेंगे उसके बाद '' इंडियन जिमखाना क्लब '' में खाने का प्रबंध होगा जहाँ भारत के सभी क्षेत्रों के खाने के स्वाद के स्टाल होंगे व भारतीय कल्चरल प्रोग्राम भी होंगे जिसमे शायद भरत-नाट्यम नृत्य और संगीत आदि है.

आप सभी पाठकों को व हिन्दयुग्म से जुड़े सभी सदस्यों को इस स्वतंत्रता दिवस पर बधाई व मेरी शुभकामनायें...जय हिंद ! वन्देमातरम !

Saturday 7 August 2010

कौन सी टेंशन जी ?

कमाल की चीज़ है ये टेंशन..इसके जलवे हर जगह देखने में नजर आते हैं और इतनी पापुलर होती जा रही है ये..हाँ जी, ऐसा ही है..लेकिन गलतफहमी ना हो आपको तो इसलिये लाजिमी है बताना कि यह किसी चिड़िया का नाम नहीं है और ना ही कोई ऐक्ट्रेस, माडल या ब्यूटी प्रोडक्ट है..बल्कि एक खास तरह का सरदर्द है..या सोशल बीमारी..इसी तरह ही इसकी व्याख्या की जा सकती है..आजकल लोगों को जरा-जरा सी बात पर टेंशन हो जाती है...कोई जरा सी बात पूछो तो बिदक जाते हैं..टेंशन हो जाती है..तो सोचा कि आज टेंशन के बारे कुछ मेंशन किया जाये...लोग कहते तो रहते हैं कि '' यार कोई टेंशन नहीं देने का या लेने का '' तो सवाल उठता है कि लोग फिर क्यों टेंशन देते या लेते है...ये टेंशन एक लाइलाज बीमारी हो रही है..डोंट फरगेट कि अब कुछ लोग नेट पर काम करते हुये नेट पर ही खाने का ऑर्डर देकर पेट भरते हैं..बीबी को टेंशन नहीं देने का...या फिर बीबी को घर पर रोज खाना बनाने की सोचकर टेंशन हो जाती है ..दोस्त अपने दोस्त का हाल पूछते हैं तो कहेंगे '' कैसे हो पाल..तुम्हें कोई टेंशन तो नहीं होगी एक बात के बारे में सलाह लेनी है ''

एक वह दिन था जब लोग चटर-पटर जब देखो अपने घरों के आँगन, वरामदे, दरवाजे पर खड़े, छत पर बैठे, या फिर किसी चौपाल में, दूकानों में या कहीं पिकनिक पर बातें करते हुये दिखते थे..खुलकर बातें करते थे और खुलकर हँसते थे. स्टेशन ट्रेन, बस, दुकानों, फुटपाथ जहाँ देखो मस्त होकर बातें करते थे और सहायता करने में भी कोई टेंशन नहीं होती थी उन्हें..लेकिन अब आजकल कमरे में बंद करके अपना काम करते हैं, नेट पर जोक पसंद करते हैं और अगर बीच में कोई दखल दे आकर तो टेंशन हो जाती है. फेमिली के संग बात करना या बोलना मुश्किल..सब अजनबी से हो गये..सब नेट पर बिजी..दोस्तों के लिये समय है लेकिन दुखियारी बीबी के लिये नहीं..लेकिन उसमे भी कब टेंशन घुस जाये कुछ पता नहीं..वेटर को सर्व करने में टेंशन, हसबैंड को बीबी के साथ में शापिंग जाने की बात सुनकर टेंशन..बच्चों को माँ-बाप से टेंशन..तो दुनिया क्या फिर गूँगी हो जाये..अरे भाई, कोई हद से ज्यादा बात करे या किसी बात की इन्तहां हो जाये तब टेंशन हो तो अलग बात है..कहीं जाते हुये घर के बाहर कोई पड़ोसी दिख गया तो हाय, हेलो कर ली लेकिन उसके बाद हाल पूछते ही जबाब सुनने से बख्त जाया न हो जाये ये सोचकर उनको टेंशन होने लगती है..किसी बात का सिलसिला चला तो लोग बहाने करके चलते बनते हैं. डाक्टर मरीजों की चिकत्सा करते हैं तो कुछ दिनों बाद उस मरीज की बीमारी में दिलचस्पी ख़तम हो जाती है और अपनी टेंशन का मेंशन करने लगते हैं...तो मरीज़ को भी अपनी समस्या को मेंशन करते हुये टेंशन होने लगती है..और अपना इलाज खुद करने लगता है..जिस डाक्टर को मरीज की बीमारी की कहानियाँ सुन कर टेंशन होती है वो क्या खाक सही इलाज करेगा...डाक्टर ऊबे-ऊबे से दिखते हैं सभी मरीजों से..उनका बख्त कटा पैसे मिले..मरीज भाड़ में जाये..जॉब को सीरिअसली नहीं लेते..क्योंकि मरीजों से उन्हें टेंशन मिलती है. मन काँप जाता है कि जैसे इंसान किसी और गृह के प्राणी की विचित्र हरकतें सीख गया हो..बच्चे को उसके कमरे से खाने को बुलाओ तो उसे नेट पर ईमेल भेजना पड़ता है ऐसा सुना है किसी से...'' जानी डिअर, कम डाउन योर डिनर इज वेटिंग फार यू..इट इज गेटिंग कोल्ड. योर डैडी एंड आई आर वेटिंग ''..उसे पुकार कर बुलाओ तो कहेगा कि टेंशन मत दो बार-बार कहकर..अब तो मित्रों से भी बोलते डर लगता है..चारों तरफ टेंशन ही टेंशन दिखती है..हवा भी खिड़की से आती है तो उसे भी शायद टेंशन हो जाती होगी..किसी भिखारी को अगर पैसे दो तो उसके चेहरे पर संतोष की जगह टेंशन दिखने लगती है..दूकानदार से किसी चीज़ के बारे में तोल-मोल करो तो उसे टेंशन हो जाती है..लोग टेंशन देने या लेने की तमीज और तहजीब के बारे में सिर्फ अपने ही लिये सोचते हैं ..किसी का समय लेने में टेंशन नहीं लेकिन अपना समय देने में टेंशन हो जाती है..आखिर क्यों सब लोग चाहते हैं कि उनकी बातों से दूसरों को टेंशन ना हो लेकिन उनको दूसरों की बातों से टेंशन हो जाती है..और तो और खुद के लिये भी कुछ करते हैं लोग तब भी टेंशन नाम की इस बला से पिंड नहीं छूटता. घर का काम हो या बाहर का, पैकिंग करो, यात्रा करो, कहीं किसी की शादी-ब्याह में जाओ..हर जगह ही टेंशन इंतज़ार करती रहती है आपका. किसी से हेलो करना भूल जाओ, तो बाद में आपको टेंशन..ये सोचकर कि ना जाने उस इन्सान ने आपकी तहजीब के बारे में क्या सोचा होगा..ये जालिम '' टेंशन '' शब्द बहुत कमाल दिखाता है..इस टेंशन का क्या कहीं कोई इलाज़ है ? नहीं..शायद नहीं..मेरे ख्याल से यह आधुनिक बीमारी लाइलाज है.

आज कल जिसे इसका अर्थ भी नहीं पता है वो भी अनजाने में इसका शिकार बन गया है..जमाना ही टेंशन का है..जो लोग इससे जरा सा मुक्त हैं या जिनके पास कोई अच्छी चीज़ है तो उनकी ख़ुशी देखकर औरों को टेंशन होने लगती है..किसी के बिन चाहे ही ये चिपक जाती है..इसलिये अब जानकर इतना बिचित्र नहीं लगता..जहाँ देखो वहाँ एक फैशन सा हो गया है कहने का 'अरे यार आजकल मैं बहुत टेंशन में हूँ .' आप किसी को पता है कि नहीं पर अब इसका इलाज करने वाले लोग भी हैं ( लोग ठीक नहीं होते है वो अलग बात है ) ये लोग पैसा बनाने के चक्कर में हैं..और जिन्हें अंग्रेजी में सायकोलोजिस्ट बोलते हैं या अमेरिका में श्रिंक नाम से जाने जाते हैं..वहाँ पर तो ये धंधा खूब जोरों पर चल रहा है..पर क्या टेंशन दूर होती है उनके पास जाने से..मेरे ख्याल से नहीं..बल्कि शायद बढ़ जाती होगी जेब से मोटी फीस देने पर..पैसे वाले लोगों के लिये श्रिंक के पास जाना और मोटी फीस देकर डींग मारना एक फैशन सा बन रहा है वहाँ..अब तो हमें बनाने वाले उस ईश्वर को भी शायद टेंशन हो रही होगी.

और अब मुझको भी टेंशन हो रही है सोचकर कि कहीं आप में से किसी को इस लेख को पढ़कर टेंशन तो नहीं होने लगी है..तो चलती हूँ..बाईईईई...दोबारा फिर मिलेंगे कभी...