Friday 30 July 2010

सावन ना सही, सावन की बतियाँ ही सही

सावन आया बरसने को आँगन नहीं रहा
घटाओं में बरसने का पागलपन नहीं रहा
आती है बारिश, लोगों के दिल भीगते नहीं
नीम और पीपल के पेड़ों पे झूला नहीं रहा.

यही अब सच है...शायद. किसी ने डूबे-डूबे मन से बताया कि भारत में सावन के समय अब उतना मजा नहीं आता जितना पहले आता था...वो बरसाती मौसम..पानी बरसने के पहले वो मस्त बहकी हवायें..जो बारिश आने के पहले आँधी की तरह आकर हर चीज़ अस्त-व्यस्त कर जाती थीं..कहाँ हैं ? होंगी कहीं...पागल हो जाते थे हम सब उनके लिये...अब भी उनके आने का सब इंतज़ार करते हैं....उनका सब लोग मजा लेना चाहते हैं...और वो बादल कहाँ हैं जो सावन में बरसने के लिये पागल रहते थे...सुना है कि अब उनके बहुत नखरे हो गये हैं..बहुत सोच समझकर आते हैं बरसने के लिये...साथ में बदलते हुये समय के रहन-सहन के साथ सावन मनाने की समस्या भी सोचनीय हो गयी है...उन हवाओं की मस्ती का आनंद लेने को अब हर जगह खुली छतें नहीं...खुले आँगन नहीं..कहीं-कहीं तो बरामदे भी नहीं..घरों के पिछवाड़े नहीं जहाँ कोई नीम या पीपल जैसे पेड़ हों जिनपर झूला डाला जा सके. जहाँ बड़ी-बड़ी इमारतें हैं वहाँ शहरों में बच्चे पार्क में खेलते हैं तो वहाँ खुले में स्टील के फ्रेम पर झूले होते हैं जिन पर प्लास्टिक की सीटें होती हैं...आजकल कई जगह टायर आदि को भी सीट की जगह बाँध देते हैं...सबकी अपनी-अपनी किस्मत...आज के बच्चे पहले मनाये जाने वाले सावन का हाल सुनकर आश्चर्य प्रकट करते हैं...और उन बातों को एक दिलचस्प कहानी की तरह सुनते हैं.
लो अब बचपन की बातें करते हुये अपना बचपन भी सजीव हो गया जिसमें..आँगन, जीना, छत, झूला, आम के बौर, और पेड़ों पर पत्तों के बीच छिपी कुहुकती हुई कोयलिया, नीम और पपीते के पेड़ ..जंगल जलेबियों के सफ़ेद गुलाबी गुच्छे..दीवारों या पेड़ों पर चढ़ती हुई गुलपेंचे की बेल जो अब भी मेरी यादों की दीवार पर लिपटी हुई है...हरसिंगार के पेड़ से झरते हुये उसके नारंगी-सफ़ेद महकते कोमल फूल...सबह-सुबह की मदहोश हवा में उनींदी आँखों को मलते हुये सूरज के निकलने से पहले जम्हाई लेकर उठना और अपने दादा जी के साथ बागों की तरफ घूमने जाना...पड़ोस के कुछ और बच्चों को भी साथ में घूमने जाने के लिये बटोर लेते थे...और उन कच्ची धूल भरी सड़कों पर कभी-कभी चप्पलों को हाथ में पकड़ कर दौड़ते हुये चलना..आहा !! उस मिट्टी की शीतलता को याद करके मन रोमांचित हो उठता है...आँखों को ताज़ा कर देने वाली सुबह के समय की हरियाली व उन दृश्यों की बात ही निराली थी. जगह-जगह आम के पेड़ थे कभी जमीन पर गिरे हुये आम बटोरना और कभी आमों पर ढेला मारकर उन्हें गिराना...उसका आनंद ही अवर्णनीय है. अपने इस बचपन की कहानी में एक खुला आँगन भी था..बड़ी सी छत थी जहाँ बरसाती हवायें चलते ही उनका आनंद लेने को बच्चे एकत्र हो जाते थे. और बारिश होते ही उसमें भीगकर पानी में छपाछप करते हुए हाथों को फैलाकर घूमते हुए नाचते थे...एक दूसरे पर पानी उछालते थे...और उछलते-कूदते गाना गाते थे...बिजली चमकती थी या बादलों की गड़गड़ाहट होती थी तो भयभीत होकर अन्दर भागते थे और फिर कुछ देर में वापस बाहर भाग कर आ जाते थे...फिर भीगते थे कांपते हुये और पूरी तृप्ति होने पर ही या किसी से डांट खाने पर अपने को सुखाकर कपड़े बदलते थे...छाता लगाकर बड़े से आँगन में एक तरफ से दूसरी तरफ जाना...हवा की ठंडक से बदन का सिहर जाना....और मक्खियाँ भी बरसात की वजह से वरामदे व कमरों में ठिकाना ढूँढती फिरती थीं...अरे हाँ, भूल ही गयी बताना कि ऐसे मौसम में फिर गरम-गरम पकौड़ों का बनना जरूरी होता था...ये रिवाज़ भारत में हर जगह क्यों है...हा हा...क्या मजा आता था.
अब बच्चे उतना आनंद नहीं ले पाते..उनके तरीके बदल गये हैं, जगहें बदल गयी हैं ना घरों में वो बात रही और ना ही बच्चों में. ये भी सुना है कि सावन का तीज त्योहार भी उतने उत्साह से नहीं मनाया जाता जितना पहले होता था...लेकिन हम लोगों के पास मन लगाने को यही सिम्पल साधन थे मनोरंजन के..क्या आनंद था ! तीजों पर झूला पड़ता था तो उल्लास का ठिकाना नहीं रहता था...पेड़ की शीतल हवा में जमीन पर पड़ी कुचली निमकौरिओं की उड़ती गंध..वो पेड़ की फुनगी पर बैठ कर काँव-काँव करते कौये...और पास में कुआँ और पपीते का पेड़ जिस पर लगे हुये कच्चे-पक्के पपीते...काश मुझे वो सावन फिर से मिल जाये...नीम के पेड़ पर झूला झूलते हुये..ठंडी सर्र-सर्र चलती हवा में उँची-उँची पैंगे लेना..अपनी बारी का इंतजार करना..दूसरे को धक्का देना...गिर पड़ने पर झाड़-पूँछ कर फिर तैयार हो जाना झूलने को...आज भी सब लोग आनंद लेना चाहते इन सब बातों का पर अब वो बात कहाँ ..लोग बदले बातें बदलीं..रीति-रिवाजें बदलीं..बस बातों में ही सावन रह गया है.

गोरों की रसोई में हिन्दुस्तानी मसालों का राज

जहाँ तक भारतीय मसालों की खुशबू विदेशों में फैलने का सवाल या जिक्र है तो वो विदेशों में अभी से नहीं बल्कि पता नहीं कितने बरसों से फैली हुई है...सभी बड़े-बड़े फूड और ग्रॉसरी स्टोर भरे पड़े हैं भारतीय मसालों और आटा, दाल, चावल, घी, तेल से...सभी गोरे और काले लोग भारतीय खाने के क्रेजी यानी दीवाने हुए जा रहे हैं। 'करी' उन सबकी फेवरट डिश है..और चिकेन टिक्का मसाला तो सरताज बना है भारतीय '' करी '' में उन सबके लिये..मसालेदार चिकेन कोरमा भी चावल के साथ बहुत खाते हैं.. काफी समय पहले इटैलियन खाना टॉप पर समझा जाता था ब्रिटेन में फिर चाइनीज खाना हुआ टॉप पर लेकिन अब सालों से भारतीय खाना ही टॉप पर है और छा गया है उन सबके दिल-दिमाग और पेट पर. गोरे लोग तो हैं ही दीवाने भारतीय खाने के..जिसे वह जमकर खाते हैं..साथ में अफ्रीकन, चाइनीज, इटैलियन भी अब हमारे देसी खाने के शौक़ीन होते जा रहे हैं...और जर्मन लोगों की तो पूछो ही ना...हर जर्मन चाहें किसी उम्र का भी हो उसे भारतीय खाना बहुत पसंद है...यहाँ पर कुछ गोरों के कुत्ते भी करी पसंद करते हैं...उनके संग खाते-खाते उनकी भी आदत पड़ गयी....ये मजाक की बात नहीं बल्कि सही है...और '' करी '' शब्द से उनका मतलब होता है..भारतीय मसाले वाली डिश...यानी दाल या सब्जी..चाहें वह '' मीट करी '' हो '' वेजिटेबिल करी '' या '' लेंटिल करी '' ( दाल ). लस्सी भी बड़े शौक से पीते हैं ये लोग. अधिकतर गोरों को कहते सुना हैं कि उन्हें उनका खाना अब अच्छा नहीं लगता क्योंकि वह फीका होता है...यानि कि स्वादरहित...यहाँ हर तरह के मूड का फूड मिलता है और लोग अपने मूड के हिसाब से फूड खाते हैं...मतलब कि अब तो फ्यूजन फूड का भी कबसे फैशन चल पड़ा है...फ्रेंच फ्राइज ( french fries: आलुओं की तली हुई लम्बी फांके ) इन्हें यहाँ पोटैटो चिप्स भी कहते हैं...हाँ, तो इनके साथ करी भी खाते हैं अब लोग...पैकेट में जो बिकते हैं उन्हें क्रिस्प बोलते हैं...तो अब कुछ क्रिस्प या चिप्स भी यहाँ ब्रिटिश स्टोर्स में मसाला पड़े बिकने लगे हैं..पिज्जा के साथ फ्रेंच फ्राइज और आग में या ओवेन में भुने हुये आलू में सोया मिंस और राजमा की सूखी मसाले वाली सब्जी भर कर खाते हैं..जिसे जैकेट पोटैटो के नाम से बोलते हैं.
यहाँ भारतीय लोग तो हैं ही अपने खाने के शौक़ीन..घर में भी बनाते हैं और बाहर भी खाते हैं रेस्टोरेंट में. जो लोग भारत के जिस ख़ास क्षेत्र से आये हैं और जिन मसालों का इस्तेमाल उन क्षेत्रों में होता है भारत में वह सभी मसाले यहाँ भारतीय ग्रासरी या फूड स्टोर्स में उपलब्ध हैं. और कई सालों से यहाँ के अपने भी बड़े-बड़े नामी स्टोर्स जैसे कि: Asda,Tesco, Sainsbury, Waitrose, Marks & Spencer, Iceland, Co Op, Lidl (जर्मन) आदि ग्रासरी स्टोर्स या कहो फूड स्टोर भी तमाम भारतीय मसाले बेचने लगे हैं...कुछ मसाले तो जैसे काली मिर्च, तेजपत्ता, इलायची आदि और कुछ अन्य भी मसाले भारतीय दुकानों की तुलना में अब इन स्टोर्स में सस्ते मिलते हैं...साथ में इन स्टोर्स में स्वाद में बहुत ही उम्दा तरीके का दही मिलता है. जिन इलाकों में भारतीय लोगों की तादाद अधिक है वहाँ के ग्रासरी स्टोर्स में अब इंडियन कुल्फी जिसमे सभी तरह की जैसे केसर, बादाम, पिस्ता, आम से बनी हुई और साथ में गुलाबजामुन और गाजर का हलवा इत्यादि भी बिकने लगे हैं. उत्तर भारत, दक्षिण भारत, गुजरात और पंजाब सब तरह के खानों के रेस्टोरेंट हैं जहाँ मिठाइयाँ भी मिलती हैं...और ब्रिटिश लोग भी भारतीय मिठाइयों के शौक़ीन हो रहे हैं वह चाहें काले लोग हों अफ्रीका के या गोरे किसी भी देश के...समोसा और पकौड़े तो बड़े ही शौक से खाते हैं जैसे कि हम लोग...और उनमें अगर मिर्च कम लगे तो कहते हैं कि जितना अधिक चटपटा हो उतना मजा आता है खाने में.. हर बिदेशी के घर में यहाँ कई तरह के भारतीय मसाले मिलेंगे..ये बात और है कि सभी प्रकार के नहीं क्योंकि अब तक उन लोगों को सब तरह के मसालों का खाने में उपयोग करना नहीं आता..लेकिन उनका उपयोग जानने के लिये बहुत उत्सुक रहते हैं...मेक्सिकन और मोरक्कन लोग अपने खाने में जीरा का प्रयोग काफी करते हैं, मोरक्कन लोग हरीसा सौस बहुत खाते हैं अपने खाने में..जिसमे मुख्य रूप से सूखी लाल मिर्च होती हैं जिन्हें तेल, धनिया पाउडर व नीबू का रस डालकर पीस कर बनाते हैं और यह एक लाल रंग के पेस्ट की तरह दिखती है, ग्रीक लोग मसालों को अधिक इस्तेमाल नहीं करते बस जीरा, काली मिर्च पाउडर और मिर्च पाउडर का इस्तेमाल करते हैं, चाइनीज लोग जब करी बनाते हैं तो उसमें फाइव स्पाइस यानि कि पंच पूरन पिसे मसाले का प्रयोग करते हैं जो मेथी, सौंफ, कालीमिर्च, दालचीनी, लौंग और सोंठ ( सूखी अदरक ) का मिश्रण होता है...और इटैलियन लोग जब tomato sauce बनाते हैं pizza या pasta के लिये तो कभी-कभी उसमे bayleaf यानि तेजपत्ता डालकर बनाते हैं उससे sauce का flavour कुछ बढ़ जाता है. और वह लोग लाल सूखी मिरचों का इस्तेमाल उसे पीसकर भी करते हैं और साबुत मिरचों का इस्तेमाल हर्ब और चिली आयल बनाने में भी करते हैं...मतलब साबुत सूखी मिरचें और कुछ हरी हर्ब ओलिव आयल में कुछ दिन डालकर रखते हैं फिर उस चटपटे तेल को pizza पर छिड़क कर खाते हैं या उसे अन्य प्रकार से भी इस्तेमाल करते हैं अपने खाने में ( हर्ब कई प्रकार के होते हैं जो इटैलियन खानों में ऐसे इस्तेमाल करते हैं जैसे हम लोग अगर धनिया या पोदीना का इस्तेमाल अपने खाने में डालकर करें ) और ब्रिटिश गोरे लोग कुछ मसाले जैसे हल्दी, मिर्च, धनिया और जीरा पाउडर, गरम मसाला, कालीमिर्च पाउडर का और जायफल पाउडर का इस्तमाल ही अधिक करना जानते हैं...मेथी व सौंफ का इस्तेमाल करना वह लोग नहीं जानते...जायफल के पाउडर को सेव की चटनी, कुछ ख़ास प्रकार के केक व पालक की सब्जी में बहुत इस्तेमाल करते हैं. अमरीकन लोग apple यानि सेब से और pumpkin यानि कद्दू से मीठी डिश pie जिसे आप पेस्ट्री भी कह सकते हैं खूब बनाते हैं और जिसमे दालचीनी पाउडर का खूब प्रयोग होता है.
कई बार ऐसा हुआ कि जब सुपरमार्केट में कुछ खरीदने गयी तो किसी गोरी या गोरा ने मुझसे पूछा कि मैं उस मसाले का इस्तेमाल कैसे और किस तरह के खाने में करूँगी और वह फिर मेरे बताने पर बड़े कौतूहल से सुनते हैं...और कई बार सब्जियाँ खरीदते हुये वो लोग पूछते हैं कि मैं उस सब्जी को किस मसाले से बनाउँगी...बैंगन का उपयोग करना यहाँ के बहुत लोग नहीं जानते और एक बार जब मैं बैंगन खरीद रही थी तो एक लेडी को जिज्ञासा हुई कि उसका कैसे इस्तेमाल होता है..तो मैंने उसे बैगन से बनने वाली तमाम तरह की चीजें बतायीं और उनमें पड़ने वाले मसालों के नाम भी..अक्सर इसी तरह ये लोग नये मसालों का इस्तेमाल करना भी जानते रहते हैं..और हाँ, ये लोग रोटी, पराठा, पूरी, और नान बगैरा बनाने को झंझट समझते हैं और बचते रहते हैं...उन चीजों को रेडीमेड ही खरीदते हैं...इन लोगों को इलायची, नारियल और केसर का उपयोग भी करना नहीं आता..क्यों कि इनके खाने में ये नहीं पड़ती और मिठाइयों में वैनिला व अन्य प्रकार के एसेन्स पड़ते हैं...लन्दन में न जाने कितने भारतीय रेस्टोरेंट हैं जहाँ खाने वाले गोरों की संख्या उतनी ही मिलेगी जितनी कि भारतीय लोगों की..बल्कि कई बार उनसे भी ज्यादा..कुछ भारतीय रेस्टोरेंट सारा दिन खुलते हैं..कुछ केवल दोपहर और शाम को यानि कि लंच व डिनर के लिये और कुछ शाम को ही जो Take Away फूड कहलाते हैं जहाँ लोग खाना खरीदकर घर ले जाकर खाते हैं..और ऐसी जगहों पर अधिकतर अंग्रेज ही खरीदते हुये देखे जाते हैं जो भारतीय खाने के शौक़ीन हैं. आम की भी इन दिनों भरमार है हालांकि इस साल अभी लंगड़ा आम नहीं आया है..लेकिन चौंसा आम आ रहा है..और भी प्रकार के आम जैसे हनी पाकिस्तान से आ रहा है...एक आम करीब ५० रूपए का मिलता है यहाँ.

स्ट्राबेरी, सेव, नाशपाती, प्लम, रास्पबेरी , ब्लैकबेरी, रेड करेंट और आड़ू यहाँ ब्रिटेन में खूब उगाये जाते हैं. यूरोप के अन्य देशों से व अफ्रीकन देशों से भी तमाम खाने की चीजें आती हैं...स्पेन से तरबूज, खरबूजा, कई प्रकार के संतरे, वेस्ट इंडीज से केले, साइप्रस से भी तरबूज और खरबूजा, इटली से अँगूर, पीचेज, टमाटर, संतरे और अफ्रीका से तमाम तरह की सब्जियाँ जिनमे जमीन के अन्दर उगने वाली भी होती हैं, कद्दू व कच्चे केले...भारत से तो तमाम फल और सब्जियाँ आती हैं...उनकी तारीफ में क्या और कितना कहूँ...कई सालों पहले न इतने स्टोर थे और ना ही इतनी विविध प्रकार के फल व सब्जियाँ..लेकिन अब अन्य सभी चीजों के साथ मसालों की भी हर जगह भरमार है...
मसालों ने बनाया हर देश में मुकाम, हिंदुस्तान का ऊँचा कर दिया नाम...है ना कमाल की बात..? जय हिंद !!!!!

''नारी को क्यों भस्म होना चाहिये?''

शांत चित्त में एक चिंगारी सी भड़क पड़ती है जब किसी बात पर पीड़ित महसूस करते हुए भी अधिकतर नारियाँ चुप रहती हैं. मैं भी चारों तरफ का माहौल देख-भाल के सहम जाती हूँ कि कौन लोगों के मुँह लगे. लेकिन कुछ बातें जो नश्तर की तरह चुभ जाती हैं अन्दर ही अन्दर जो समस्त नारी जाति पर लागू होती हैं और जिन बातों को अब भी लोग जबरदस्ती करने/कहने पर तुले हुए हैं, तो मेरा मन कुछ समय के लिये अशांत सा हो जाता है. जिस बात से मन में एक ज्वाला सी धधकी उसे लिखने वाला एक पुरुष ही है.. ''स्वयं को स्वाहा कर, औरों के जीवन का प्रकाश बन.'' इस पंक्ति को पढ़ते ही मन बहुत दुखी सा हो गया, मन में चिंगारी सी भड़की. कोई इंसान नारी को स्वाहा करने की बात करता है ताकि वह एक शक्ति बन सके...तो पढ़ते ही मैं सोचने पर मजबूर हो गयी कि लोग क्यों हर समय नारी को आगे कर देते हैं स्वाहा होने को. ये रटी-रटाई सी पंक्तियाँ हैं जिनकी विस्तृत समालोचना किये बिना ही लोग कह देते हैं. जैसे कि वह कोई घास-फूस या समिधा-सामग्री हो जो आग में स्वाहा करने को बनी है. और फिर लोग उसे भस्म करके उससे शक्ति की अपेक्षा रखते हैं. वो तो वैसे भी युगों से इतना कुछ करती और सहती आई है कई रूपों में. बिना किसी के कहे ही वह अपने तमाम कर्तव्यों को निभाती आई है. और फिर एक तरफ तो उसे अबला कहा जाता है तो दूसरी तरफ उसे भस्म करके उससे शक्ति की आशा करते हैं. तो भई, उसे किस तरह भस्म होना चाहिये और किस तरह की शक्ति मिलेगी उसे भस्म करके ? मन ही मन में तो वह समाज के लोगों की किसी ज्यादती या रीतियों-कुरीतियों का शिकार बन कर भस्म होती ही रहती है. उसके बाद भी लोग पता नहीं क्या अपेक्षा करते हैं उससे. लोग जब उसे दुर्गा कहते हैं तो यह नहीं सोचते कि उसमे वो दैविक शक्ति नहीं है जिससे सीता जी जल गयीं थी..और कभी जब औरत के बलिदानों की बात चलती है कि ''आज की औरत सतयुग की सीता से भी अधिक अग्नि परीक्षायें देती है'' तो तमाम गहन धार्मिक प्रवृति के लोग इसे सीता जी का अपमान समझते हैं और भड़क पड़ते हैं कहते हुये कि सीता जी से आज की औरत की कोई समानता नहीं और तरह-तरह के उदाहरण देते हुये पूरी रामायण ही उठा लाते हैं बहस करने के लिये. तो अगर ऐसा है तो फिर आज के पढ़े लिखे लोग नारी के बारे में ये क्यों कहते हैं बिना सोचे समझे हुये कि ''स्वयं को स्वाहा कर, औरों के जीवन का प्रकाश बन.''

यह पढ़कर मेरे मन को लगता है कि नारी को लोग कोसने से बाज नहीं आते. समय बदला है, और वह पढ़ी-लिखी व समझदार है फिर भी समय-समय पर उसकी अवहेलना की जाती है और जरा-जरा सी बातों में मखौल उड़ाया जाता है उसका. अपने को बहुत बहादुर कहने वाली औरतें भी कभी अपनी गलती ना होने पर भी पुरुषों के मगरूर व्यवहार पर सहमी रहती हैं. औरत डर के कारण व पुरुष अपने बचाव में कहते रहते हैं कि अब समय बदल गया है..अब वह हालत नहीं रही औरत की..वह मजबूत है समझदार है, आदि-आदि. लेकिन यह बातें कितनी सही हैं ? और तुर्रा ये कि औरत को भस्म करके उससे शक्ति हासिल करने की भी बात की जाती है. अरे, उसे भी तो कभी पुरुष की इन्ही खूबियों की जरूरत हो सकती है जीवन में. तो कितने पुरुष हैं जो उसकी जरूरत के समय उसकी शक्ति बनते हैं..अधिकतर को तो जलन होने लगती है. और कितने ही औरत की उपेक्षा करके उसे सताते रहते हैं. औरत कोई घास-फूस या लकड़ी तो है नहीं जो उसे आज्ञा दी जा रही है कि ''स्वाहा हो जा'' और फिर ऐसा होने पर तो वह राख बन जायेगी और किसी काम की ना रहेगी..तो उसे अपनी स्वाभाविक मौत ही क्यों नहीं मरने दिया जाता..क्यों उसके लिये जीते-जी चिता सुलगा कर झोंकने का प्रयास करते हैं लोग ऐसी बातें करके ? कई बार तो औरत की इज्ज़त की बात करने वाले समाज के ठेकेदार खुद बुरी नज़र रखते हैं उसपर. और जो अपनापन दिखाने वाले लोग हैं वो उसपर मुसीबत आने पर निगाहें बचाकर बगलें झाँकने लगते हैं. ऊपर से जुर्रत ये कि उसे जीते जी भस्म भी करना चाहते हैं. क्यों...आखिर क्या बिगाड़ा है उसने किसी का..क्या उसे दर्द नहीं होगा...क्या उसे अपने तरीके से जीने का अधिकार नहीं है..?

वास्तव में लोगों की इस तरह की कही या लिखी बातें पढ़कर या विचार जानकर मन को बहुत पीड़ा होती है और लगता है कि नारी को समाज में बस दिखावे के लिये ही ऊँचा दर्ज़ा दिया जाता है लेकिन ''भस्म '' और ''स्वाहा'' या अन्य इसी तरह के तमाम शब्दों का इस्तेमाल करके उसे कोसा जाता है. अगर वह भस्म हो गयी तो कहाँ से ताकत देगी ?


Thursday 22 July 2010

फेसबुक पर अपनों का पागलखाना

फिलासफाना नजरिये से देखिये तो यह दुनिया एक पागलखान ही तो है..जहाँ हर तरह के पागल भटकते हुये नजर आयेंगे...ऐसा ही कुछ यहाँ फेसबुक पर भी देखने में आया...और तब मन में बिचार आया कि यदि कोई ऐसी जगह बनाई जाये जहाँ सभी तरह के पागल एक छत के नीचे एकत्र होकर अपने पागलपन की बातें शेयर कर सकें तो कितना अच्छा हो...

तो फेस बुक के प्यारे साथियों, आप सबके लिए एक विशेष हर्ष की सूचना है कि यहाँ फेसबुक पर समय की नजाकत और जरूरत को देखते हुये प्रति जी उर्फ़ प्रतिबिम्ब जी की अनुकम्पा से एक पागलखाने का निर्माण हुआ है...सीधे शब्दों में कहने का मतलब है कि उन्होंने एक पागल खाना फेसबुक पर खोला है...' अपनों का पागलखाना.कॉम '. और उनके ही कर कमलों से इसका उदघाटन समारोह भी संपन्न हुआ...इससे सम्बंधित सभी सेवायें फ्री हैं...तात्पर्य यह है कि आपको बिना एक फूटी कौड़ी खर्च किये बिना ही भरती कर लिया जायेगा...वह हर इन्सान, जिसे इस पागलखाना की खबर मिली, पागल हुआ जा रहा है या यूँ कहिये कि पागल होने के लिए पागल हुआ जा रहा है.. ताकि उसका एडमिशन हो सके...पागलखाने की पापुलैरिटी की खबर आग की तरह फ़ैल चुकी है..इसमें भरती होने के लिये लोगों में होड़ लगी है...लोग कतार में खड़े हैं...यहाँ हर तरह के पागलों की जरूरत है...जितने ज्यादा लोग इसमें भरती होंगे उतना ही इसके और विख्यात होने के चांसेज हैं...तो मित्रों आप सब लोग इसे ज्वाइन करने के लिए आमंत्रित हैं...जो भी इसमें भरती होना चाहे बिना किसी फीस के आसानी से बुकिंग हो जायेगी...सब पागलों के बिना पागलखाना बनाने का कोई मतलब ही नहीं था...जब पागल देखे तो पागलखाना बना...पागलों के लिये एक ठिकाना मिला...इस बहाने कम से कम हम सब पागल मिल तो सकते हैं...हा हा हा हहहह्ह्ह्ह

अब आप शायद जानना चाहेंगे कि इसके निर्माण के पीछे क्या वजह/राज़ है..और किसके भेजे में इसका बीजारोपण हुआ..तो आपकी शंका-समाधान करना मेरा परम कर्त्तव्य बनता है..हुआ यूँ कि इन दिनों फेसबुक पर कई सारी शादियों व लोगों के जन्म दिनों की पार्टियों में जाना-आना हुआ..वहाँ तरह-तरह के लोगों से मिलना-जुलना भी हुआ..जैसा कि सबको पता है कि इंसान एक सामाजिक प्राणी है...और इन पार्टियों की जरूरत भी एक सामाजिक आवश्यकता होती है..और इसकी वजह से तमाम लोग एक दूसरे के बारे में कितना जान जाते हैं व आपस में मिल जुल कर प्रेम-भाव को डेवलप करते हैं..और दिमागी टेंशन दूर होती है..तो वहाँ आये हुये कई मित्रों से इन्फार्मल तरीके से पेश आना हुआ..उस समय के दौरान ऐसा महसूस हुआ कि कुछ लोग शायद पागल लोगों की श्रेणी में आते हैं...इस बात को सोचकर मन में कसक सी रही...कुछ घंटों के उपरांत मेरे दिमाग में ख्याल आया कि इन बेचारों को फेसबुक पर होते हुये इन पार्टियों को अटेंड करना भी जरूरी है..वर्ना तो ये सब और पागल हो जायेंगे...लेकिन जितना भी इनका पागलपन है क्या इसके बारे में कुछ किया जा सकता है...फिर सवाल उठा कि क्या होना चाहिये..तो बिजली के झटके की तरह मेरे दिमाग में ख्याल आया कि क्यों ना यहाँ एक पागलखाना खोला जाये..लेकिन कैसे..? सोचा किसी एक्सपर्ट से पूछा जाये इस आइडिया को बता कर..तो वहीं पर हम सबके एक परम मित्र प्रतिबिम्ब जी पधारे हुये थे..जिनसे मैंने अपने आइडिया के बारे में जिक्र किया..बस कहने की देर थी कि उन्हें यह आइडिया पसंद आ गया..फिर आगे की स्टोरी ये है कि आनन-फानन में कुछ घंटों में ही उन्होंने फटाफट एक पागलखाना भी खोल दिया...सारे मित्रों के बीच ये खबर जैसे ही पहुँची उन्होंने आव देखा न ताव..बस दौड़ लगा दी पागलखाने की तरफ..और बिना किसी प्रयास के पागलों की भीड़ लग गयी वहाँ...अब हाल ये है कि हर कोई अपने को पागल घोषित करने में लगा हुआ है..अब आप खुद ही इसकी पापुलैरिटी का अंदाज़ा लगा सकते हैं..हर कोई पागलपन का प्रमाणपत्र हासिल करने में लगा हुआ है...इन पागलों के बीच में पागलखाने के बॉस पागल हुये जा रहे हैं या कहिये कि हो चुके हैं..इस पागल खाने के कुछ नियम भी हैं..और इसकी लिंक भी दे रही हूँ यहाँ..ताकि बिना समय व्यर्थ किये हुये आप लोग भी इसका लाभ उठाइये...और एक खास बात ये है कि प्रतिबिम्ब जी को हम सब प्यार से प्रति जी कहते हैं..वैसे वो ' प्रवचन बाबा ' ' पागल बाबा ' या पी. बी. नाम से भी अब जाने जाते हैं..और जब से ये पागलखाना खुला है वही इसके बॉस हैं और इस पागल खाने में उन्हें सब ' पागल बॉस ' के नाम से जानते हैं..वह बहुत ही खुशमिजाज पागल हैं..ख़ुशी या दुख की बात तो ये है इस पागलखाना के बारे में कि जो आता है इसकी बातों से अभिभूत हो जाता है...हम सबके शुभचिंतक प्रति जी उर्फ़ हमारे ' पागल बास ' पागलों में इतने सेवारत हुये कि खुद भी एक ग्रेट पागल हो गये और आज उन्हें बॉस की पोजीशन ही सूट करती है...उनके अलावा जो और पागल हैं वो अपनी पोजीशन खुद सेलेक्ट करते हैं लड़-झगड़ कर..या एक दूसरे को मारकूट कर...जो अधिक होशियार हैं उनका अपना गैंग भी बनने लगा है...कोई पागलों का लीडर है कोई उसका असिस्टेंट, या सेक्रेटरी इत्यादि...अक्सर संकट का समय आने पर जब प्रति जी पर प्रतिक्रिया होती है तो प्रवचन बाबा का रूप धारण कर के इधर-उधर अचानक प्रकट होते रहते हैं...( जुओं की समस्या से त्रस्त होकर उन्होंने इन दिनों अपनी दाढ़ी-मूँछ न रखने का फैसला किया है..तो इन दिनों ' पागल बाबा' या ' प्रवचन बाबा ' की इमेज बदली नजर आयेगी ).

इस पागलखाना के बारे में जानने लायक कुछ बातें:

१. निशुल्क दाखिला यानी एडमिशन...यहाँ हर तरह के नमूने के पागलों को बिना किसी समस्या के भरती कर लिया जाता है..बस पागलखाने का दरवाज़ा खटखटाने भर की देर है...

२. फ्री हास्य-मनोरंजन: यहाँ आया हर पागल दूसरे पागल से अपने पागलपन के अनुभव बाँटता है और पागलपने की बातें करके हल्का महसूस करता है...चूँकि हर इन्सान या पागल में अपनी एक विशेषता होती है..तो इसी बात को नजर में रखते हुये पागलखाने वालों ने सभी पागलों की पागलपन की प्रतिभा को और भी निखारने का या प्रोत्साहन देने का निश्चय करके एक प्रोग्राम आयोजित करने का निश्चय किया/लिया है..उसके लिये हर पागल को किसी भी पागलपन की रचना लिखकर लाने की छूट है..मतलब ये कि पागल तो पागल साथ में उसकी पागलपने की रचनाओं का भी दिल खोल कर स्वागत होगा...

३. आप मित्रों के साथ मजाक या मस्ती यहाँ कर सकते हैं..लेकिन इस बात का ख्याल रखते हुये कि किसी को ठेस न पहुँचे..या वे ही मित्र शामिल हों जो मजाक-मस्ती पसंद करते हैं और बुरा नहीं मानते हैं..अगर आप इस टाइप के हैं तो आप खुशी-खुशी इसका फायदा उठायेंगे.. अन्य शब्दों में कहूँ तो लाभान्वित होंगे...गुड लक !

४. अपना पागलखाने का पता है: http://www.facebook.com/pagalkhaana" आप इस लिंक पर क्लिक करिये तो आप अपने को सीधे पागलखाना के अन्दर पायेंगे...

** पागलपन के लक्षण : वैसे तो पागलों की पहचान कई रूपों में होती है..किन्तु यहाँ पर कुछ नमूने ही पेश कर रही हूँ जैसे कि: यदि आपको प्रतीत होता है कि आपको चुरा कर मिठाई खाने की गंभीर लत पड़ गयी है ( जैसे कि जोगी उर्फ़ जोगेन्द्र ), या आपकी आदत दूसरों की बुराई या चुगली करने वाली बहुत है ( आपका सीक्रेट यानी राज, हम लोग यानी पागलखाने के कर्मचारी, किसी को नहीं बतायेंगे बस चुपचाप पागलखाने में जाकर दाखिल हो जाइये ), या हद से अधिक हँसते हैं हँसने वाली बातों पर ( जैसे कि मैं ), या पैसा बनाने के चक्कर में अपने '' नीम हकीम खतरेजान '' वाले चिकित्सालय को खोलने वाले पागल ( जैसे कि सरोज जी ), या किसी दूसरे पागल को सबसे बड़ा पागल क्यों कह दिया उस पर जेलस होने वाला पागल ( जैसे कि जोगी उर्फ़ जोगेन्द्र ) या पागल खाना खोलने वाला जो पागलों को प्यार करते हुये गाता है ' दिल है कि मानता ही नहीं ' या ' दिल तो पागल है ' टाइप वाले गाने ( जैसे कि प्रति जी ). हा हा हा हा...

आशा करती हूँ कि आप लोगों को मेरी कही हुई हर बात समझ में आ गई होगी..लेकिन यदि कन्फ्यूज़ हैं तो हमारे ' पागल बॉस ' से कान्टेक्ट कीजिये और अपने पागलपने के सवालों के जबाब बास के पागलपने के उत्तरों से पाइये...यदि उनकी बात भी समझ में ना आये तो आप अब और देर किये बिना पागलखाने पहुँच कर अन्य तमाम पागलों से मिलिये..शायद यही एक उपाय हो आपकी समझ में आने का.. .

आप सब फेसबुक के साथियों की शुभचिन्तक
- शन्नो