Friday 3 December 2010

फेसबुक या फिर...फसबुक ( Fuss Book ) ?

हे भगवान ! फेसबुक पर झंझटों का जमघट..अब ये सब कुछ कहते भी नहीं बनता और सहते भी नहीं बनता.
जो कुछ मैं कहने जा रही हूँ फेसबुक के बारे में वो सभी फेसबुकियों के बारे में सही है या नहीं ये तो नहीं कह सकती पर कुछ फेसबुकियों को जरूर हजम नहीं हो रही हैं ये बातें. और इतना तो क्लियर है ही कि चाहें हर कोई मुँह से ना बताये कि कितना पेन होता है उन्हें ( इन्क्लूडिंग मी ) कुछ लोगों की टैक्टिक से कि अब फेसबुक एक फसबुक यानि झंझट, या कहो कि सरदर्द लगने लगा है. फेसबुक पर भ्रष्टाचार उपज रहा है...कहानियाँ सुनी जा रही हैं..घटनायें होती रहती हैं जिनका उपाय समझ में नहीं आता...ना ही निगलना हो पाता है ना ही उगलना...यानि उन बातों के बारे में साफ-साफ कहने में तकलीफ होती है सबको और पचाने में भी तकलीफ...ये सब फेसबुक देवता की मेहरबानी है...दिमाग में बड़ी उथल पुथल मचती है..कुछ फेसबुकियों को बहुत सरदर्द हो रहा है जो इसमें काफी फँस चुके हैं...अब कश्ती मँझदार में फंसी है और किनारा मिल नहीं रहा है...

फेसबुक पर आना शुरू-शुरू में तो बड़ा ट्रेंडी और खुशगवार लगता है..लेकिन नये-नये होने पर नर्वसनेस भी जरूर होती है..फिर हर इंसान धीरे-धीरे उसमे रमकर जम जाता है. और फिर जैसे-जैसे इसमें धंसते जाओ..मतलब ये कि लोगों से और उनकी रचनाओं से मुलाक़ात करते जाओ तो अक्सर क्या अधिकतर ही बहुत बोझ बढ़ जाता है जिससे एक तरह का प्रेशर भी जिंदगी पे पड़ने लगता है..कुछ लोग फ्रेंड बनते ही पेज पर आकर सबके साथ नहीं बल्कि केवल इनबा
क्स में ही अलग-अलग आकर वही एक से पर्सनल लाइफ के बारे में सवाल पूछते हैं और समझाने पर बुरा मान जाते हैं..इनबाक्स में कभी-कभार जरूरत पड़ने पर ही बाते होती हैं..ये नहीं कि किसी को साँस लेने की फुर्सत ना दो..सवाल के बाद सवाल करते हैं व्यक्तिगत जीवन के बारे में उसी समय तुरंत ही मित्र बनने के बाद. कितनी अजीब सी बात है
कि पेज पर आकर खुलकर सबके सामने बात नहीं करते..और दूसरी टाइप के वो हैं जो बहुत सारी वाल फोटो लगाकर दुखी करते रहते हैं..पहले बड़ा मजा आता था किन्तु अब उन वाल फोटो की संख्या बढ़ती जाती है..और अगर धोखे से भी ( या कभी-कभी जानबूझ कर भी अपनी सुविधा के लिये ) डिलीट हो जाती
हैं तो फिर दुविधा में फँस जाने के चांसेज रहते हैं..वो टैगिंग करने वाला इंसान अपने तीसरे नेत्र से पूरा हाल लेता रहता है..और पूछने की हिम्मत भी रखता है कि...'' क्या आपने हमें अपनी फ्रेंड लिस्ट से निकाल दिया है '' या '' क्या आप मुझसे नाराज हैं '' या फिर अपने स्टेटस में कोई सज्जन लिखते हैं कि '' अगर कोई मेरी रचनाओं पर टैगिंग नहीं चाहता तो साफ-साफ क्यों नहीं बताता मुझे ताकि आगे से उनको टैग ना करें हम '' अब आप ये बताइये कि समझदार के लिये इशारा वाली कहावत का फिर क्या मतलब रह गया...अरे भाई, कभी तो हिंट भी लेना चाहिये ना, कि नहीं ? और साथ में धकाधक भजन के वीडियो भी एक इंसान की वाल पर आ रहे हैं कई-कई लोगों के एक ही दिन में और साथ में उन्हीं की दो-दो रचनायें भी..और बाकी अन्य लोग भी टैग कर रहे हैं तो पढ़ने वाले का दिमाग पगला जाता है सोचकर कि इतना समय कहाँ से लाये सबको खुश करने को..कुछ और अपने भी तो पर्सनल काम होते हैं आखिरकार. एक रचना कुछ दिन तो चलने दें ताकि आराम से सभी की रचनाओं को पढ़ा जा सके और अपना भी काम किया जा सके. पर इस अन्याय / अत्याचार के बारे में कैसे समझाया जाये किसी को. हर किसी को अपनी पड़ी है यहाँ...चाहें किसी के पास टाइम हो या न हो. और ऊपर से मजेदार बात ये कि वो इंसान तुरंत कमेन्ट लेना चाहता है. कुछ लोग तो लगान वसूल करने जैसा हिसाब रखते हैं कि एक भी इंसान छूट ना जाये कमेन्ट देने से. उस बेचारे की मजबूरियों का ध्यान नहीं रखा जाता...शेक्सपिअर के ' मर्चेंट आफ वेनिस ' जैसे उन्हें भी बदले में फ्लेश जैसी चीज चाहिये अगर जल्दी कमेन्ट ना दे पाओ तो पूछताछ चालू कर देते हैं...बस अपने से ही मतलब. और कुछ लोग बड़े-बड़े आलेख लगाते हैं और वो भी एक दिन में दो-दो जैसे कि लोगों को केवल उनका ही लेख पढ़ना है...ये नहीं सोचते कि अन्य लोगों ने भी किसी को अपनी रचनाओं में टैग कर रखा है...एक आफिस के काम से भी ज्यादा समय लग जाता है अब फेसबुक पर. मेल बाक्स के कमेन्ट पढ़ने, लिखने और मिटाने में ही कितना टाइम लग जाता है. खैर...

कुछ लोग कितने स्मार्ट होते हैं कमेन्ट लेने के बारे में इस पर जरा देखिये:

फ्रेंड: नमस्ते शन्नो जी, मुझसे कुछ नाराज हैं क्या ? मैं अपनी खता समझ नहीं पा रहा हूँ...

मैं: अरे आप ये कैसी बातें कर रहे हैं..मैं भला आपसे क्यों नाराज़ होने लगी. इधर काफी दिनों से मुझे समय अधिक नहीं मिल पाता है फेसबुक पर एक्टिव होने के लिये...इसीलिए शायद आपको ऐसा लगा होगा. मैं किसी से भी नाराज नहीं हूँ..बस समय और थकान से मात खा जाती हूँ. इसी वजह से कुछ अधिक लिख भी नहीं पाती हूँ इन दिनों.

फ्रेंड: मेरे कई फोटोग्राफ से बिना कोई प्रतिक्रिया के आपने अपने आप को अनटैग कर लिया. तभी मुझे ऐसा महसूस हुआ था.

मैं: जी, टैगिंग तो इसलिये हटानी पड़ी कि वहाँ पर कमेन्ट बाक्स नही सूझता था मुझे...शायद कोई फाल्ट होने से. और बहुत लोग अब वाल पिक्चर ही लगाते हैं तो बहुत इकट्ठी हो गयी थीं इसलिये एक फ्रेंड ने सलाह दी तो कुछ को छोड़कर बहुत सी हटानी पड़ीं.

( ये अपनी टैगिंग का ध्यान रखते हुये हर किसी से कमेन्ट ऐसे वसूल करते हैं जैसे कि कर वसूली कर रहे हों..किसी को भी छोड़ना नहीं चाहते खासतौर से उन लोगों को जो उनसे शिकायत करने में कमजोर हैं..या झिझकते हैं )

मैं: जब मैं आपको अपनी रचनाओं में टैग करती थी..तो आप कमेन्ट नहीं देते थे तो फिर मैंने आपको टैग करना बंद कर दिया...किन्तु कभी शिकायत करने की हिम्मत नहीं कर पायी फेसबुक पर किसी दोस्त से कि कोई बुरा न मान जाये इसलिये.

( इतना कहते ही मुझे लगा कि वो मेरी जुर्रत से खिसिया गये )

फ्रेंड: क्षमा कीजियेगा मेरे इन्टरनेट अकाउंट की लिमिट प्रतिमाह १ जी बी तक ही है और वह आमतौर पर महीने की २३-से २४ तारीख तक पूरी हो जाती है इसी लिए कमेन्ट कम कर पाता हूँ. यदि आपको कमेन्ट बॉक्स ना मिले तो मेरी फोटो के ऊपर मेरी Profile को क्लिक करियेगा जिससे मेरा पेज खुल जायेगा फिर पेज के साइड में ऊपर की ओर बने हुए "Like" बटन को क्लिक कर दीजियेगा तब कमेन्ट बॉक्स दिखने लगेगा.

मैं: हर किसी की अपनी मजबूरियाँ होती हैं...मैं समझती हूँ..औरतों को तो घर के भी काम करने पड़ते हैं..मैं तो कई बार सारे दिन के बाद फेसबुक पर आ पाती हूँ तो सबकी रचनाओं पर लोगों के कमेन्ट से मेलबाक्स भरा होता है और निपटाते हुये घंटों लग जाते हैं..बड़े-बड़े लेख पढ़ने का तो समय ही नहीं मिलता...इसलिये बहुत कुछ छूट जाता है. जब मैं टैगिंग करती हूँ तो बहुत से लोग जबाब नहीं देते तो मैं समझ जाती हूँ कि उनकी भी कुछ मजबूरियाँ होंगी. और कुछ लोग अपनी रचनायें एक के बाद एक लगाते हैं और तब मुश्किल हो जाती है एक ही दिन में कमेन्ट देने में..वो बस अपनी ही रचनाओं के कमेन्ट पर ध्यान देते हैं....फिर मेरी रचनाओं पर कमेन्ट के समय गायब हो जाते हैं..इस तरह के कई लोग हैं...

( अब उन्हें लगने लगा कि मेरे भी मुँह में जबान है तो...)

फ्रेंड: बिलकुल सही कहा आपने .......सबकी अपनी मजबूरियाँ....... आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ......शुभ रात्रि.

मैं: देखिये, मैंने आपको अपनी तरफ से हर बात शत-प्रतिशत ईमानदारी से सही-सही बताई हैं...पर आप बुरा ना मानियेगा...नो हार्ड फीलिंग्स..ओ के ?...शुभ रात्रि !

Tuesday 2 November 2010

गाइ फाक्स डे ( GUY FAWKES DAY )

HAPPY DIWALI !!

आज आप सबको अपने भारत में मनाये जाने वाले दिवाली-दिवस की तरह इंग्लैंड में मनाये जाने वाले एक दिवस के बारे में बताती हूँ जिसे '' गाइ फाक्स डे '' के नाम से सब जानते हैं. और इस दिन को खुशी से मनाने के लिये 5 नबम्बर को शाम से आधी रात तक यहाँ जगह-जगह खूब फुलझड़ियाँ और बम-पटाखे फोड़े जाते हैं. इस बार अपना त्योहार दिवाली भी इसी दिन पड़ रहा है तो सोचा कि लाओ आप लोगों को '' गाइ फाक्स डे '' के बारे में भी कुछ बताऊँ. और अब केवल 5 नबम्बर को ही नहीं बल्कि हफ्ते भर पहले से ही लोग फुलझड़ी और पटाखे फोड़ने लगते हैं. जिनकी आवाज़ दूर-दूर तक जाती है. लेकिन 5 नबम्बर को स्पेशल प्रोग्राम होते हैं. हर एरिया के बड़े-बड़े पार्क में खूब धूम-धड़ाका होता है. लोग दूर-दूर से देखने के लिये आते हैं. और ये क्यों मनाया जाता है इसके बारे में अब आप लोगों को बताती हूँ :

बहुत समय पहले 1570 में इंग्लैण्ड में, जब रानी एलिजाबेथ प्रथम का राज्य था, गाइ फाक्स नाम के एक व्यक्ति ने जन्म लिया. उसका पिता प्रोटेस्टेंट था और माँ कैथोलिक थी. जब वो नौ साल का था तो उसके पिता की मृत्यु हो गयी और माँ ने दूसरी शादी कर ली. उसका दूसरा पति कैथोलिक था. गाइ का धर्म अब कैथोलिक हो गया. उसकी दो बहिनें भी थीं..और उसे बाहर बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने के लिये भेज दिया गया. वहाँ पर उसके अधिकतर दोस्त कैथोलिक थे. उसकी पढ़ाई चलती रही पर छुट्टियों में वह अपने घर वापस आ जाता था परिवार से मिलने के लिये. स्कूल में उसके अधिकतर दोस्त कैथोलिक धर्म के थे.

तो इंग्लैंड में उस समय दो धर्म चल रहे थे एक का नाम था '' प्रोटेस्टेंट '' और दूसरा '' कैथोलिक ''. रानी प्रोटेस्टेंट थी और लोगों में झगड़े पड़े रहते थे कि कौन सा धर्म सही है. कैथोलिक लोग चाहते थे कि उनपर शासन करने वाला कैथोलिक हो. वहाँ की पार्लियामेंट को डर था कि कहीं कैथोलिक लोग रानी को मार ना दें, इसीलिये सारे कानून उनके खिलाफ बना दिये गये. खैर, 1603 में रानी की मृत्यु हो गयी और फिर वहाँ जेम्स नाम का व्यक्ति राजा बना जो जेम्स प्रथम के नाम से जाना गया. वो भी प्रोटेस्टेंट था और वो चाहता था कि सारी प्रजा प्रोटेस्टेंट हो जाये. कैथोलिक लोग चुरा-छिपा कर अपने धर्म की पूजा करते थे वर्ना उन्हें कड़ी सजा मिलती थी..कभी जुर्माना होता था तो कभी जेल में डाल दिया जाता था. गाइ का परिवार कैथोलिक था. वो बड़ा होकर स्पेन जाकर, जो एक कैथोलिक देश था, एक अच्छा सिपाही बना.

जेम्स बहुत ही क्रूर था और कैथोलिक लोग उससे बहुत नाराज रहते थे. कुछ तो उसे मारने की भी कोशिश करते रहते थे. पर वो राजा हर बार बच जाता था. फिर एक बार की बात है कि कुछ लोगों के ग्रुप ने, अपने लीडर के साथ जिसका नाम रॉबर्ट गेट्सबी था पर राबिन नाम से जाना जाता था, राजा को मारने की नयी स्कीम बनायी. और जब गाइ के कानों में ये बात पड़ी तो 1604 में गाइ वापस इंग्लैंड आ गया. ये स्कीम बहुत खतरनाक थी. राजा जेम्स का बिचार 1605 में एक नयी पार्लियामेंट खोलने का था. गाइ ने हाउस आफ लार्ड्स को बारूद से उड़ाने का प्लान बनाया जिसमें राजा, उसकी रानी व उनका बड़ा बेटा सभी मारे जाते और फिर कैथोलिक लोगों का राज्य हो जाता. उसके गिरोह में और लोग शामिल हुये और अंत में कुल मिलाकर तेरह लोग हो गये. उस समय पार्लियामेंट के चारों तरफ तमाम घर व दुकानें थी. गाइ ने उस इमारत से लगा हुआ एक घर किराये पर ले लिया और वहाँ एक नौकर की तरह काम करने लगा. और अपने साथियों के साथ मिलकर प्लान बनाने लगा कि किस तरह से पार्लियामेंट बिल्डिंग के नीचे बारूद बिछाया जाये. उनकी हर बात गुप्त रखी जाती थी. फिर उन्होंने किसी तरह बिल्डिंग के नीचे के स्टोररूम में 36 लकड़ी के ड्रम पहुँचाये जिनमें बारूद भरा हुआ था.

लेकिन किस्मत से एक दिन एक लार्ड मौन्टीगल नाम के व्यक्ति को किसी ने एक पत्र भिजवाया जिसमे लिखा था कि उस खास दिन को पार्लियामेंट का उद्घाटन समारोह ना किया जाये. आज तक किसी को नहीं पता वो पत्र किसने लिखा था. लोगों का अनुमान है कि शायद स्कीम बनाने वाले ग्रुप में से कोई चाहता हो कि ये स्कीम औरों को पता लग जाये और हादसा होने से बच जाये. और कुछ लोगों का सोचना है कि ये चाल राजा के मंत्री रॉबर्ट की हो सकती है क्योंकि उसने अपने जासूस लगा रखे थे चारों तरफ. और कुछ लोगों का कहना है कि ये स्कीम रॉबर्ट ने ही कैथोलिक लोगों के संग मिलकर बनाई थी फिर उन लोगों को इल्जाम में फँसा दिया पत्र लिखकर. ताकि कैथोलिक लोगों के बिरुद्ध और भी सख्त कानून बनाये जायें. खैर, लार्ड मौंटीगल उस पत्र को लेकर राजा जेम्स के उसी खास मंत्री राबर्ट सेसिल के पास गये. और राबर्ट ने वो पत्र कुछ दिन बाद राजा को दिखाया.

पार्लिया मेंट की बिल्डिंग के हर कोने में छान-बीन की गई और स्टोररूम में गन पाउडर मिला. और वहाँ बाहर घूमते हुये एक व्यक्ति को भी राजा के सिपाहियों ने पकड़ लिया, जो गाइ फाक्स था. राजा ने उससे सवाल पूछे लेकिन गाइ ने अपना नाम जॉन जानसन बताया और अपने साथियों का नाम बताने से इनकार कर दिया..ताकि इतने समय में उसके साथी कहीं और भाग जायें. लेकिन उसके साथी भागने की वजाय और बागी हो गये. गाइ को राजा के लोग टावर आफ लंदन नाम की एक बिल्डिंग में ले गये जहाँ अपराधियों को कड़ी यातनायें दी जाती थीं. उसे भी बहुत बुरी तरह से यातना दी गई. हालाँकि उसने मारने का प्लान बनाया था किन्तु फिर भी कुछ लोगों ने उसकी बहादुरी की तारीफ की व तरफदारी की. बहुत से उसके साथी भाग गये और कुछ को गोली से उड़ा दिया गया जिनमें उनका लीडर राबर्ट भी था. बाकी को टावर आफ लंदन में बहुत बुरी तरह से यंत्रणा दी गई. कैद में रहते हुये कई लोगों ने दीवार पर अपने नाम खोदे..दो नाम आज भी दीवार पर देखे जा सकते हैं. और फिर 1606 में गाइ फाक्स के साथ उनको कत्ल कर दिया गया.

उस दिन के बाद बारूद से होने वाली दुर्घटना से बच जाने की खुशी में 5 नबम्बर के दिन को '' गाइ फाक्स डे '' नाम दे दिया गया. और यहाँ के लोग हर साल इसे खूब धूमधाम से मनाते हैं. खुशी में आधी रात तक खूब पटाखे फोड़े जाते हैं. लेकिन सुरक्षा का बहुत तगड़ा बंदोबस्त रखा जाता है. लोगों को घेरे के काफी दूर खड़े रहना होता है. और पटाखों की आवाज और रोशनी काफी दूर-दूर तक देखी जा सकती है.

HAPPY DIWALI TO ALL !...FROM LONDON.

Wednesday 27 October 2010

करवा चौथ..या कड़वा चौथ ?

हाँ, अपने समाज का यह कड़वा सच है कि एक औरत ही पतिव्रता बन कर वफादार रहती है और पति से अगले सात जन्मों के बंधन के बारे में सोचती है. लेकिन पुरुष के मन में क्या है उसका पता उसे नहीं लग पाता. और वो शायद जानना भी नहीं चाहती. तो ये तो एक तरह से पति पर ज्यादती हुई कि उसकी पत्नी अगले सात जन्मों में भी उसी पर अपने को थोपना चाहती है, है ना ? अपने पति की असली इच्छा जाने बिना ही अगले सात जन्मों में भी उसी से ही चिपकी रहना चाहती है. आँख-कान बंद करके औरत यही करती आयी है अपने समाज में पतिव्रता बनने की कोशिश में. क्या ये दिखावा है..ढोंग है लोगों को अपने पतिव्रतापन को इस तरह से जताकर ? इन बातों पर जब गंभीरता से गौर किया तो मुझे यह सब लिख कर कहने की प्रेरणा मिली.

मानती हूँ, हर तरह के बिचार व व्यवहार के लोग हर जगह होते हैं..और आज की आधुनिकता में तो लोगों के बिचार लगातार बदल रहे हैं. पहली बात तो ये कि अगले जनम का क्या पता कि कौन क्या होता है और मिलता भी है या नहीं. लेकिन जहाँ चाहत व असली प्यार हो वहाँ तो ऐसी बातें करना अच्छी लगती हैं..वरना औरत अपने को एक तरह से वेवकूफ ही बनाती है इन सब बातों को करके व कहके. चलो मानती हूँ कि जो औरतें पूजा-आराधना करती हैं पति की लंबी उम्र व भलाई के लिये वो सही है किसी हद तक. लेकिन अगला जनम उसी के नाम !!!! WHO KNOWS ABOUT THAT ? पता नहीं दुनिया में कितने शादी-शुदा पुरुष शायद सोचते होंगे कि '' VARIETY IS THE SPICE OF LIFE '' तो फिर वो क्यों अपनी उसी वीवी की अगले आने वाले जन्मों में तमन्ना करने लगे, बोलिये ?

सुनी हुई बातें भी हैं लोगों से कि कितने ही शराबी पति इस दिन भी देर से आकर अपनी पत्नियों को भूखा-प्यासा रखते हैं. और अगर किसी बीमार औरत ने इंतज़ार करते हुये उसके आने की उम्मीद छोड़कर कुछ मुँह में डाल लिया कमजोरी से चक्कर आने पर तो पति आकर गाली- गलौज करता है और मारता है उसे कि '' तूने मुझे खिलाये बिना कैसे खा लिया..तेरी हिम्मत कैसे और क्यों हुई ऐसा करने की ? ''

मुझे पता है कि मेरे बिचारों के बिरुद्ध तमाम लोग बोलने को तैयार होंगे. फिर भी कहना चाहती हूँ कि अपने समाज की बातों को देख और महसूस करके मन में जो बिचार उठ रहे थे उन पर मैंने गौर किया. पर उन्हें किसी से डिसकस करते हुये डर लग रहा था तो अपनी बात कहने का ये तरीका सोचा मैंने कि शायद औरतों का ध्यान मेरी कही बात की तरफ कुछ आकर्षित हो सके. और इतना भी बता दूँ कि मैं इस '' करवा चौथ '' की प्रथा के विपक्ष में नहीं हूँ..मुझे बगावत करने का दौरा नहीं पड़ा है. किन्तु क्या उन रिश्तों में ये उचित होगा कि वो औरतें जो खुश नहीं हैं अपनी जिंदगी में अपने पतियों के संग..वो आगे के जन्मों में भी उन्हीं को पति के रूप में अवतरित होने के लिये कहें. अपनी समझ के तो बाहर है ये बात.

खैर, आखिर में इतना और कहना है कि इस बात पर हर औरत अपने आप गौर करे और समझे तो उचित होगा. मैंने तो सिर्फ अपने बिचार रखने की एक सफल या असफल कोशिश की है. और सोचने पर मजबूर होती हूँ कि ऐसे पतियों का साथ पत्नियाँ क्यों माँगती है अगले जन्मों में..वो भी सात जन्मों तक ? क्यों, आखिर क्यों..जब कि किसी भी जनम का कोई अता-पता तक नहीं किसी को ? और क्या फिर से यही अत्याचार सहने के लिये उन जन्मों का इंतजार ?????

Wednesday 13 October 2010

नारी जीवन सुलभ नहीं

नारी चाहे कितना पढ़-लिख गयी हो किन्तु अब तक उसकी परिस्थितियाँ भारतीय समाज में अधिक नहीं सुधरीं हैं..उसे नीचा दिखाने में समाज व ससुराल वाले अब भी पीछे नहीं रहते..और फिर कहने वाले लोग दुहाई देते हैं कि आज की नारी बहुत पढ़ी-लिखी है, सशक्त है और अपना भला-बुरा खुद सोच सकती है. किन्तु कहने भर से क्या होता है..कोई उसे सशक्त बनने पर टोकता रहे तो कैसा आत्म विश्वास ? वो तो सब काफूर हो जायेगा. सोचने की शक्ति कोई छीन ले तो अपना भला-बुरा क्या सोच पायेगी.
अधिकतर नारियाँ अपने पारिवारिक कर्तव्यों की तरफ से विमुख नहीं होती हैं..फिर भी न जाने क्यों भारत में उन्हें पराई बेटी कहकर रखा जाता है. और चाहें कोई लड़की विदेश में भी पति के साथ रह रही हो..भारत जाने पर उसे सारे कर्तव्यपालन करने व संस्कारयुक्त होने पर भी न जाने क्यों कुछ ससुराल वाले नीचा दिखाया करते हैं और वह तिलमिलाकर रह जाती है. इसमें अकेली नारी अपने लिये क्या कर सकती है जब तक कि इस समस्या को कुछ जानपहचान वाले न सुलझायें. किन्तु लोग दूर से ही सिर्फ कुछ सहानुभूति दिखाकर अपना कर्तव्य पूरा कर देते हैं. समझाना कोई नहीं चाहता सोचकर कि '' अरे कौन किसी की बुराई-भलाई में पड़े. '' जहाँ समाज की ऐसी मानसिकता है तो नारी की यही स्थिति रहेगी. कुछ लोग बिना दहेज की लड़की ले लेते हैं फिर दहेज ना लेने की बात अक्सर उठाकर उसके साथ बुरा व्यवहार करते हैं..उसे ताने देकर व उसके साथ मनमानी करके..जैसे उसे ब्लैकमेल कर रहे हों. कुछ गरीब, अशिक्षित व मजबूरी की मारी नारियों के जीवन में तो और भी कई भयानक और बदसूरत पहलू होते हैं. जिस तरह के काम करके उन्हें अपना और अपने बच्चों का पेट पालना पड़ता है उन पर भी बिचार करने की जरूरत है.
नारी के जीवन का ये सच बहुत कड़वा और दर्दनाक है..लेकिन वाकई में नारी जीवन सुलभ नहीं. कितनी शर्मनाक बात है कि हम आज औरत के अधिकार की बात करते हैं कि '' औरत के भी अधिकार होते हैं '' कोई बताये कौन से अधिकार ? माता-पिता के घर में पराया धन समझी जाती है. क़ानून बनने के बाद भी वह पैत्रक सम्पति लेने पर जोर नहीं रखती क्योंकि उसे समझाया जाता है कि उसके भाई ही उसके माता-पिता की देखभाल करेंगे और उसे भी उसकी ससुराल से जरूरत आने पर विदा कराके लायेंगे और मायके में उसकी सुख-सुविधा का ध्यान रखेंगे. ये सब ढकोसलेबाजी है. आजकल ना तो भाइयों का उतना लगाव रहा है बहनों से और ना ही भाई लोग पहले के भाइयों की तरह उन्हें विदा कराने जाते हैं..बल्कि कई जगह तो उलटे बहिनें ही अपना पैसा खर्च करती हैं उन पर और माँ-बाप को भी रखती हैं. बेटियों को बचपन से ही समझाया जाता है कि जब भी और जहाँ भी वह शादी के बाद जायेंगी तो वही घर उनका अपना होगा. लेकिन इस समाज में यह एक काले धब्बे की तरह सच है जो छुपाया नहीं जा सकता कि कितनी जगह नारी पर पढ़ी-लिखी होने के वावजूद भी अत्याचार होता है. एक लड़की अपने माता-पिता का घरबार किसी दूसरे परिवार के आश्वासन पर छोड़ कर आती है. एक खूँटे से खोलकर उसे दूसरे खूँटे से इस समाज के बनाये हुये नियमों पर लाकर बाँध दिया जाता है..एक नये संसार में नये लोगों के बीच यह सोचकर और भरोसा करके कि उसका पति उसकी हर बात में रक्षा करेगा. किन्तु यह अधिकतर सच नहीं होता. और अगर पत्नी में सभी गुणों के होने पर भी पति की नीयत बदल जाये तो वह क्या करेगी ? औरत मजबूरी में कितना सहती है ससुराल वालों के लिये..अपने पति के लिये कितना कुछ झूठ बोल जाती है. कुछ पति व दामाद बहुत स्मार्ट होते हैं..औरों के सामने बहुत चतुराई से व्यवहार करके उन लोगों का दिल जीत लेते हैं और सच को झूठ साबित कर देते हैं..फिर भी शादी की गाड़ी खिंचती रहती है.
नारी को एक ऐसा अभिशाप बना रखा है अपने समाज में कि उसे अपनी स्थिति का खुद ही पता नहीं कि उसका वजूद क्या है. शादी के पहले माँ-बाप के घर को वह अपना कहती है तो उसे बराबर अहसास कराया जाता है कि वह पराया धन है..फिर भी उसकी अकल में नहीं आता. घर-भर का ख्याल रखना, पढ़ना-लिखना, घर का काम-काज सीखना व अच्छे संस्कारों को सीखना ताकि उसे अपने जीवन में कोई समस्या ना हो और ससुराल में भी उसे सम्मान मिले. लेकिन फिर पति के यहाँ आने पर अगर सुनना पड़े कि '' मैंने तेरे बाप का कर्जा नहीं खाया..तू क्या अपने बाप के यहाँ से ये घर लाई है या वो लाई है '' आदि कहकर उसे परायेपन का अहसास दिलाया जाता है..तो उसे पति के यहाँ कैसे अपनापन लग सकता है ? कितने समझौते करते हुये भी शादी एक ऐसा कड़वा घूँट है कुछ औरतों के लिये कि वह चाहें कितनी भी कोशिश करे ससुराल में सबको खुश करने को तो भी नहीं कर पाती है..सब सहन करती हुई शादी के बंधन को एक कड़वे घूँट की तरह ना ही उसे घूँट पाती है और ना ही थूक पाती है..और आपसी रिश्तों की कटुता बढ़ती जाती है. लेकिन पति का घर छोड़ कर उन ज्यादतियों से बचकर औरत कहाँ जाये ? ये सब वह जान बूझ कर क्यों सहती है ? एक दिन जिस इंसान का हाथ पकड़ कर वह आती है और जो शादी के समय उसका संरक्षण करने का दावा करता है बाद में उसके ही हाथों से मार खाती है..जिस मुँह से वह वचन लेते हैं अग्नि को साक्षी मानकर साथ निभाने का उसी मुँह से वह बाद में पत्नी को किलस कर गालियाँ देकर उसे कोसते हैं और उसका अपमान करते हैं. कुछ पुरुष उन्हें घर वालों के संग मिलकर भी सताते हैं.
एक समय वह था जब नारी को हर यज्ञ में बराबर का स्थान और घर में गृह-लक्ष्मी का दर्ज़ा दिया जाता था..और उससे हर बात में सलाह मशवरा लेकर काम किया जाता था..और सम्मान दिया जाता था. और अब कई पुरुष अपने उन रटे-रटाये अग्नि के फेरे वाले वचनों को भूल कर पत्नी से चुरा-छिपा कर मनमानी करते हैं. और अगर कोई ताड़ ले उनके अत्याचारों को तो अपनी पत्नी के विरुद्ध कहानी गढ़ कर उस पर झूठे / मनगढंत दोषारोपण करके दूसरों की निगाह में उसे ही कसूरवार ठहरा देते हैं. और पत्नी अवाक सी रह जाती है. पुरुष अगर अकेले कहीं रहकर गुजर करते हैं तो उनपर उँगली नहीं उठाता कोई..लेकिन अगर एक औरत अकेली रहकर कहीं गुजर करना चाहे तो समाज उसका जीना मुश्किल कर देता है. किसी पुरुष से निर्दोषता से बात भी करे तो उसपर बदचलन होने का इलजाम भी लगते देर नहीं लगती. अगर सोचिये तो शायद यही कारण हो सकता है कि इस डर से पढ़ी लिखी औरतें भी अपने पति के संग उनकी ज्यादती सहते हुये एक गुलाम की तरह रहती है. और उनके माँ-बाप सोचते हैं कि उनकी लाडो बेटी ससुराल में रानी बनकर राज कर रही होगी..हाँ कुछ करती हैं जो किस्मत वाली होती हैं. जैसा मैंने कहीं सुना है कि कहीं तो किसान की बेटी भी सबको मुट्ठी में रखती है और कहीं जज की बेटी को भी पति के हाथों मार खानी पड़ती है. लेकिन हर हाल में अधिकाँश की दशा शोचनीय ही है. अगर समाज के तानों को झेलने की जिल्लत ना सहनी पड़े तो पता नहीं कितनी औरतें बिना शादी किये हुये आत्मनिर्भर होकर जीना पसंद करेंगी. शादी का ऐसा बंधन जो खुशी की वजाय उसके जीवन और अस्तित्व को झकझोर डाले तो इससे तो अच्छा है कि वह किसी तरह अपनी बसर खुद ही कर ले. इस दिखावे के बंधन का क्या फायदा जहाँ सच्चा प्यार व सहानुभूति मिलने की जगह उसका जीना ही दूभर हो जाये.
एक और खास बात है इस समाज की वो ये कि हर कोई लड़की यानि होने वाली बहू को तो स्वस्थ्य लेना चाहता है किन्तु लड़का अगर किसी बीमारी को भुगत रहा है तो कोई बात नहीं. लेकिन उस लड़की का क्या हो जिसका शादी के तुरंत बाद एक्सीडेंट हो जाये या किसी गंभीर बीमारी का शिकार बन जाये ? शायद उसे वो लोग भुगत लेंगे किसी तरह.
जिस देश में नदियों के नाम गंगा, जमुना, सरस्वती हैं..उसी देश की गंगा, जमुना, और सरस्वती जैसी बेटियाँ किसी की माँ, बहन, और पत्नी भी हैं..और शादी के पहले माता-पिता के यहाँ भार होती हैं फिर पति के यहाँ जाकर अपमान सहती हैं. नारी की स्थिति कितनी दयनीय बना कर रख दी है इस समाज ने..पति को छोड़कर समाज की निगाहों में निरंतर प्रश्न बनी रहेंगी या उनकी भूखी आँखों का शिकार बनती हैं. इसीलिए पति को छोड़कर बदनामी के भय को न सह पाने के डर से वह कोई भी ऐसा-वैसा कदम ना उठाकर सब कुछ चुपचाप सहती रहती है.

जीवन की सचाई: मृत्यु

ओ, दुनिया बनाने वाले ये कैसी दुनिया बनाई
हम सब मिलते हैं मेले में सिर्फ लेने को विदाई.

सच में आप सब भी क्या सोचते होगें कि ये शन्नो कहाँ गायब हो जाती है अचानक कभी-कभी. क्या जरा देर को भी नहीं आ सकती थी फेसबुक पर...तो क्या बताया जाये भाई, कि कभी-कभी हर रोज की जिंदगी का ढर्रा भी एक सा नहीं रह पाता है..जैसे कि कल की ही बात लीजिये..आप सबने शायद सोचा होगा कि मैं फेसबुक पर अपना फेस चिपका कर कहाँ गायब रही सारा दिन..मेरी तरफ से कुछ हलचल नहीं हो रही है. यही सब तो सोचा होगा आप सबने, है ना ? तो मित्रों, जीवन में अक्सर ऐसा भी हो जाता है कि अचानक ही सब छोड़कर कहीं जाना पड़ता है. तो अब सोचती हूँ कि बता ही दूँ कि कल मुझे मरने की भी फुर्सत नहीं मिली..मतलब यह कि सारा दिन अत्यधिक व्यस्त रही..फेसबुक से दूर रहना पड़ा. मुझे बहुत अफ़सोस है बताते हुये कि परिवार के एक मित्र के मित्र का निधन हो जाने पर उनके फ्यूनरल यानि कि आखिरी क्रिया कर्म के अवसर पर जाना पड़ा. तो वहाँ पहुँचने के लिये सुबह-सुबह ही प्रस्थान करना पड़ा घर से और वो जगह काफी दूर होने से वहाँ पहुँचने में ही करीब चार घंटे लग गये.

वहाँ पहुँच कर देखा कि उनका शरीर, जो मृत्यु हो जाने के बाद हफ्ते भर से MORTUARY में रखा गया था, घर पर आ चुका था और घर में उनके परिवार व मित्रों की भीड़ लगी हुई थी. इस देश में शरीर के अंतिम संस्कार यानि कि जलाने या दफनाने के लिये उस जगह की बुकिंग करानी पड़ती है. सबसे पहले तो मृत्यु होने के बाद डॉक्टर से मरने वाले के नाम का लेटर लेकर उसके बाद जन्म, मृत्यु और शादी से सम्बंधित जो रजिस्ट्रार होता है उससे मरने वाले के लिए सर्टिफिकेट लेना पड़ता है. फिर फ्यूनरल डायरेक्टर से बात करके पैसा देकर उनके यहाँ कोल्ड स्टोरेज में शव को रखते हैं..और फिर जहाँ शव को जलाते हैं उस क्रेमेटोरियम वालों से वहाँ शव जलने के दिन को फिक्स किया जाता है. और हिंदू लोग अपने रीति-रिवाज के अनुसार उस दिन कोल्ड स्टोरेज में जाकर शव को कपड़े वगैरा पहनाते हैं और फ्यूनरल डायरेक्टर अपनी हर्स ( बड़ी काली कार ) में उस शव को लकड़ी के कफिन में रखकर उसके परिवार के घर लाते हैं.

तो जब हम लोग उनके घर पहुँचे वहाँ पंडित कफिन के पास बैठा श्लोक उच्चारण कर रहा था और उसके आदेश पर उन दिवंगत मित्र का बेटा फूल-अक्षत आदि से सारी विधि संपन्न कर रहा था. उस विधि के बाद अन्य हम सभी लोगों ने भी फूल-अक्षत व चन्दन चढ़ाकर उनको श्रन्धांजलि अर्पित की..फिर उनके कफिन को उनके बेटे व मित्रों ने अपने कन्धों पर रखकर उसे हर्स में रखा जो तमाम फूल मालाओं से सजी थी. और फ्यूनरल वाले उस गाड़ी को लेकर क्रेमेटोरियम को रवाना हुये...पीछे-पीछे हम सब लोग भी अपनी-अपनी कार में चल पड़े.

वहाँ पहुँचने के बाद बिल्डिंग के अंदर, जहाँ चर्च की तरह वातावरण लग रहा था, सबसे पहले पंडित ने संस्कृत में श्लोक पढ़े फिर उन मित्र के बेटे और नाती पोतों ने स्पीच दी. और उसके बाद हम सब अपना सर झुका कर और हाथ जोड़कर '' जय श्री कृष्ण '' कहकर बाहर आ गये. बाहर तमाम फूल रखे थे जो जान पहचान वालों के यहाँ से भेजे गये थे. कुछ देर वहाँ और रुकना पड़ा. पूछने पर पता लगा कि शव का कफिन एक बड़े चैम्बर में आटोमेटिकली खिसकते हुये पहुँच गया होगा और वहाँ २०० डिग्री सेंटीग्रेड की हीट होती है. बाहर उसके एक बटन लगा होता है जिसे बेटा ने दबाया होगा और चैंबर के अंदर अग्नि प्रज्वलित हो गयी..जैसे भारत में बेटा हाथ में जलती लकड़ी से अग्नि देता है. एक घंटे में शव कफिन के साथ जलकर राख बन गया होगा और वह राख अपने आप एक बड़े डब्बे में गिर गयी होगी जो घरवालों के पास एक निश्चित दिन पहुँचा दी जायेगी.

फिर वहाँ से उनके घर पर वापस आये जहाँ उनके घरवालों की तरफ से कुछ खाने का प्रबंध किया गया था सब आने वालों के लिये...खाकर और कुछ देर रूककर और बातचीत करने के बाद हम लोग वापस चल पड़े और काफी रात में यहाँ घर पहुँचे. मैं थकान से इतनी चूर थी कि फेसबुक केवल दिमाग में ही रहा. और आज सुबह इतने मेसेज थे मेल बाक्स में कि अब तक निपट नहीं पाई हूँ और उँगलियाँ सुन्न हो गयी हैं..अब ये असली स्टोरी पढ़कर आप लोग मेरी मजबूरी को जान गये होंगे. कल भी फिर वहीं सुबह-सुबह उतनी ही यात्रा करके हवन और पूजा में शामिल होने को पहुँचना है...ओम शांति !

बेबो जी, हैप्पी बर्थडे

( अभिनेत्री करीना का जन्म दिन 21. 09. 2010 )
'' बेबो जी, हैप्पी बर्थडे ! भगवान आपको और भी फ्लोप्स दे...''
'' तू सैफ के ही साथ रहे तो ज्यादा अच्छा है..अपनी फिल्मो से आम जनता को पागल ना बनाये..आम आदमी का पैसा ना खाये फ्लोप्स देकर..वैसे ही एक तो आम आदमी मँहगाई की मार से अधमरा हो चुका है.''
पढ़कर बड़ा विचित्र लगा मुझे..गलतफहमी ना होने पाये आप सबको मेरी तरफ से इसलिये जल्दी से बता दूँ कि ...
अभी-अभी जो कुछ आपने ऊपर पढ़ा बेबो के बारे में वो मेरा अपना कहा या लिखा नहीं है...मेरी तोबा मैं कैसे जुर्रत कर सकती हूँ..ये तो फेसबुक की मेहरबानी है कि वहाँ पर मुझे करीना के जन्म दिन पर एक मित्र के लिखे आलेख में किसी के कमेन्ट में ये पढ़ने को मिला..और मैं चकरा गयी...लेकिन करीना पर आलेख होने से मैं भी अपनी ड्यूटी यानी कमेन्ट करके खिसक आयी चुपके से. मैंने लिखा था:
'' करीना को जन्म दिन की मुबारकबाद..आलेख पढ़ा बहुत अच्छा है..और उनके बारे में तमाम जानकारी मिली. आपकी समयानुसार लेख प्रकाशन और विविध जानकारी की क्षमता बहुत आश्चर्यजनक है.''
अब मेरा कमेन्ट पढ़कर बेबो को बद्दुआ देने वाले को चैन नहीं पड़ा तो अगले कमेन्ट में मुझसे बातचीत जारी कर दी..शायद अपने मन की भड़ास निकालने के लिये अपनी बातों के चक्कर में फँसा लिया. ये आलेख लिखने वाले मित्र के मित्र हैं जिनका चित्र देखकर उनके बारे में पता लगाया कि वह काफी यंग हैं और फिल्मो पर आम आदमी को पैसा झोंकते हुये देखना इनसे गवारा नहीं होता..यानी इन्हें बौखलाहट होती है..यानी ठीक नहीं समझते.
तो हमारी बातचीत चालू हो गयी...
मित्र के मित्र : '' बेशक लेख बहुत अच्छा लगा मुझे भी लेकिन क्या फायदा इस सबका..लोग और पागल हो जायेंगे..और अधिक जायेंगे सिनेमा हाल..इतनी मँहगाई में और पैसा फूँकेंगे इनकी पिटी हुई फिल्मो पर..यानी पैसों की बर्बादी.''
मैं : '' मेरे लिये तो लेख से ही जानकारी मिल जाना काफी है फेसबुक पर..बाकी बात रही फिल्मे देखने की तो उसके लिये अधिक समय नहीं मिलता और ना ही इतनी तमन्ना रही अब..और अगर देखना भी चाहे कोई तो घर बैठे ही डी वी डी देख सकते हैं किसी फिल्म की..यही लोग अधिकतर करते हैं.''
मित्र के मित्र : '' लेकिन वो डी वी डी देखने के लिये भी तो उसे पैसे देकर खरीदना पड़ता है.''
मैं : '' तो क्या आप फिल्मों पर अपना पैसा बिलकुल नहीं खर्च करते क्या..तब तो आपकी किफायतमंदी की तारीफ़ करनी पड़ेगी..चलो ठीक भी है और भी तो फ्री मनोरंजन के साधन हैं..फेसबुक पर म्यूजिक सुनो फिर..और वीडियो देखो फेसबुक पर.''
मित्र के मित्र : '' शन्नो जी, यहाँ पर मैं बात अपने मनोरंजन की नहीं कर रहा हूँ. यहाँ मैं आम आदमी की बात कर रहा हूँ. इस मँहगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है..तो लोग क्यों अपना पैसा बर्बाद करते हैं करीना की फ़िल्में देखकर. लेकिन अगर देखनी हैं तो आमीर खान की देखें..कम से कम पैसा सही जगह तो लगे ना.''
मैं : '' आमीर की फिल्मे हों या करीना की..पैसा तो व्यर्थ दोनों पर ही होगा..क्या मिलेगा आमीर की फिल्मों से..सिर्फ इसके कि वो और अमीर हो जायेंगे और हम और गरीब...अपने लिये तो करीब-करीब सब एक से ही हैं कोई पक्षपात नहीं करने का..और फिर इतनी दूर रहते हुये इन लोगों का ध्यान ही नहीं रहता मुझे और ना ही इनकी फिल्मों का..भारत में तो लोग फिल्मो को ही अधिकतर मनोरंजन का साधन समझते हैं..कोई नयी फिल्म का नाम सुना तो क्रेजी हो जाते हैं..दुनिया में रियल लाइफ भी कोई चीज है..है ना ?''
मित्र के मित्र : '' बिलकुल, बिलकुल..मैं आपकी बात से सहमत हूँ. ये फिल्म, ये नाटक, ये सब एक हद तक ठीक है..आम आदमी की क्या हालत है पता है आपको ? रात को इनके घर पर चूल्हा जलाने को पैसा नहीं होता...लेकिन फिल्म देखने के लिये होता है..अब आप ही तय करिये कि क्या होगा हमारे देश का.''
मैं : हाँ, आपकी इस बात से मैं भी बिलकुल सहमत हूँ, एकमत हूँ..आपने सही कहा इस मुद्दे पर. लोग भ्रष्टाचार के बारे में कहते हैं कि सरकार गरीबों का खून चूसती है और पब्लिक का जीना मुश्किल हो रहा है मँहगाई और रिश्बतखोरी से लेकिन ये जो फ़िल्में आग लगाती हैं घरों में तो इनके बारे में क्या हो ? इनके लिये तो फिल्म इंडस्ट्रीज वाले ही दोषी हैं और खुद पर काबू न रख पाने वाली जनता भी..कितने ही गरीब हों लोग अपनी पाकेट में खुद छेद करते हैं फिल्मों पर पैसा बहा कर..जरूरत की चीजों पर हाय पड़ी रहती है लेकिन फिल्मों का चस्का है..यहाँ तक कि भिखारी भी..ये सब कल्पना नहीं..बल्कि हकीकत है..लेकिन आप या हम जैसे कुछ लोगों के गला फाड़कर चिल्लाने या समझाने से कोई फायदा नहीं होने वाला..लोगों को खुद खोलना होगा अपनी अकल का ताला. हमारे समझाने से दुनिया कहेगी कि..अजी आपको क्या तकलीफ..क्या मतलब हमसे..माइंड योर ओन बिजिनेस..अपना रास्ता नापिये..और हम अपना सा मुँह लेकर रह जायेंगे..किस-किस को समझायेंगे..बोलो ?''

बात कहाँ से कहाँ पहुँच सकती है..अब तो आपको अंदाजा हो गया होगा..है ना ? हमारी पर्सनल ओपिनियन ना पूछें बल्कि आप सब बतायें कि क्या उपाय है गरीबों को फिल्म देखने से रोकने के लिये ताकि उनका पैसा उनकी खास जरूरतों पर लगे, या फ्लॉप फिल्मो पर बंदिश का या फिल्मों को बनाने के धंधे को कम करने पर ताकि आम जनता को अधिक प्रलोभन ना हो इसके चक्कर में पड़ने का ? क्या कोई सुझाव है जो मुझे अब तक ना सूझा कोई...

जन्माष्टमी

आज जन्माष्टमी है..भगवान् कृष्ण का जन्मदिन. तो आओ, आप सबको मैं उनके जन्म के बारे में कहानी सुनाती हूँ...

करीब 5००० साल पहले मथुरा में उग्रसेन नाम के एक राजा राज्य करते थे. उनकी प्रजा उन्हें बहुत चाहती थी और सम्मान देती थी. राजा के दो बच्चे थे..कंस और देवकी. उनका लालन-पालन बहुत अच्छी तरह से किया गया..दोनों बच्चे बड़े हुये और समय के साथ उनकी समझ में भी फरक आया. कंस ने अपने पिता को जेल में डाल कर गद्दी हासिल कर ली और राज्य करने लगे. वह अपनी बहिन देवकी को बहुत प्यार करते थे. और कंस ने देवकी का ब्याह अपनी सेना में वासुदेव नाम के व्यक्ति से कर दिया. लेकिन कंस को देवकी की शादी वाले दिन पता चला कि उनकी बहिन की आठवीं संतान से उनकी मौत होगी. तो कंस ने देवकी को मारने की सोची. किन्तु वह अपनी बहिन को बहुत चाहते थे इसलिये मारने की वजाय उन्होंने देवकी और वासुदेव दोनों को जेल में डाल दिया. वहाँ देवकी की कई संतानें हुयीं और सातवीं को वासुदेव की दूसरी पत्नी रोहिनी की कोख से जन्म लेना पड़ा...इसीलिए जब कृष्ण जी का जन्म हुआ तो उनको सातवीं संतान करके बताया गया. जिस रात उनका जन्म हुआ था उस रात बहुत जोरों की आँधी चल रही थी और पानी बरस रहा था..भयंकर बिजली कौंध रही थी..जैसे कि कुछ अनर्थ होने वाला हो. जेल के सारे रक्षक सोये हुये थे उस समय और जेल के सब दरवाज़े अपने आप ही खुल गये..आँधी-तूफान के बीच बासुदेव कृष्ण को एक कम्बल में लपेटकर और एक टोकरी में रख कर चुपचाप गोकुल के लिये रवाना हुये जहाँ उनके मित्र नंद और उनकी पत्नी यशोदा रहते थे..उधर यशोदा और नंद के यहाँ एक कन्या का जन्म हुआ. और जब वह यमुना नदी पार कर रहे थे तो पानी का बेग ऊपर उठा उसी समय वासुदेव की गोद में से कृष्ण का पैर बाहर निकला और पानी में लगा तभी यमुना का पानी दो भागों में बंटकर आगे बढ़ने का रास्ता बन गया.बासुदेव ने उसी समय उस बच्चे की अदभुत शक्ति को पहचान लिया. वह फिर गोकुल पहुँचे और कंस की चाल की सब कहानी नंद और यशोदा को बताई. नन्द और यशोदा ने कृष्ण को गोद लेकर अपनी बेटी को बासुदेव को सौंप दिया जिसे उन्होंने मथुरा वापस आकर जेल में कंस को अपनी आठवीं संतान कहकर सौंप दिया और कंस ने उस कन्या को मारने की कोशिश की पर सुना जाता है कि मरने के समय वह कन्या हवा में एक सन्देश छोड़कर विलीन हो गयी कि '' कंस को मारने के लिये आठवीं संतान गोकुल में पल रही है.'' लेकिन कंस ने सोचा की जिससे उनकी जान को खतरा था वह राह का काँटा हमेशा के लिये दूर हो गया है और अब उन्हें कोई नहीं मार पायेगा. कृष्ण जी नंद और यशोदा के यहाँ पले और बड़े हुये और उन्हें ही हमेशा अपना माता-पिता समझा. और बाद में उन्होंने अपने मामा कंस का बध किया और मथुरा की प्रजा को उनके अत्याचार से बचा लिया.

जन्माष्टमी सावन के आठवें दिन पूर्णिमा वाले दिन मनाई जाती है क्योंकि इसी रात ही कृष्ण जी का जन्म हुआ था. हर जगह मंदिरों में बहुत बड़ा उत्सव होता है..सारा दिन भजन-कीर्तन होता रहता है. कान्हा की छोटी सी मूर्ति बनाकर रंग-बिरंगे कपड़ों में सजाकर एक सोने के पलना में रखकर झुलाई जाती है. घी व दूध से बनी मिठाइयाँ खायी व बाँटी जाती हैं..घरों में लोग व्रत रखते हैं..कुछ लोग तो सारा दिन पानी भी नहीं पीते जिसे '' निर्जला व्रत '' बोलते हैं और रात के 12 बजे के बाद ही कुछ खाकर व्रत को तोड़ते हैं और कुछ लोग दिन में फलाहार खा लेते हैं..लेकिन नमक व अन्न नहीं खाया जाता इस दिन. दही और माखन कन्हैया की पसंद की चीज़ें थीं जिन पर वह कहीं भी मौका पड़ने पर चुरा कर उनपर हाथ साफ़ किया करते थे..और बेशरम बनकर सबकी डांट खाते रहते थे. तो इस दिन कई जगहों में लोग एक मटकी में दही, शहद और फल भर कर ऊँचे पर टाँगते हैं और फिर कोई व्यक्ति कान्हा की नक़ल करते हुये उस मटकी को ऊपर पहुँच कर फोड़ता है. कुछ लोगों का विश्वास है कि उस टूटी हुई मटकी का टुकड़ा अगर घर में रखो तो वह बुरी बातों से रक्षा करता है.

कृष्ण जी के बारे में जगह-जगह रास लीला होती है और झाँकी दिखाई जाती है..जिसमें मुख्यतया पाँच सीन दिखाये जाते हैं : 1. कन्हैया के जन्म का समय 2. वासुदेव का उन्हें लेकर यमुना नदी पार करते हुये 3. वासुदेव का जेल में वापस आना 4. यशोदा की बेटी की हत्या 5. कृष्ण जी का पालने में झूलना.
कुछ घरों में जन्माष्टमी का उत्सव कई दिनों तक चलता रहता है.

सभी मित्रों को जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर बधाई व ढेरों शुभकामनायें !

Wednesday 25 August 2010

फेसबुक पर रक्षाबंधन का डिनर और अतीत की एक घटना ( या दुर्घटना )...

दो अजीब बातों का ताल-मेल ???? हाँ, कुछ ऐसी ही बात है..एक फेसबुक पर मुलाकात है..दूसरी अतीत की वारदात है.

तो सुनिये सब लोग कि बहन का दिल तो टूक-टूक हो जाता है जब भाई लोग फेसबुक पर एक बहन के परोसे खाने की तस्वीर देख के लार टपकाते हैं और सचमुच में खा नहीं पाते हैं..खाना देखते हुये भी खाने से दूरी..कितनी लाचारी..कितनी मजबूरी..और शायद मुझे मन में कोसते भी होंगे सोचकर कि '' देखो कैसे खाने की चीज़ों को दिखा-दिखा कर मन जला रही है '' लेकिन अपने भाइयों के लिये रक्षाबंधन पर कुछ तो करना ही होता है बहन को सो मैंने सोचा कि सबकी तबियत हरी हो जायेगी..इसलिये डिनर देते समय मन खुशी से बड़ा फूला-फूला था..फिर जब महसूस किया कि ये बेचारे तो असली खाना चाहते हैं तो अफ़सोस हुआ और मन मुरझा सा गया. मन जलाने के उद्देश्य से पार्टी नहीं दी थी, प्यारे भाइयों..मैंने तो सच्ची श्रद्धा से आप सबको निमंत्रित किया था..किन्तु यहाँ फेसबुक पर पार्टी की कहानी अलग टाइप की होती है..इसे आप लोग अपनी किस्मत कह सकते हैं..और मन जलाने वाली बात से अपने बचपन से जुड़ी वो अतीतकाल की सच्ची स्टोरी भी याद आ गयी जब भगवान के यहाँ से मेरी काल आते-आते रह गयी..ये स्टोरी कोई मजाक की बात नहीं है..हाँ... तो जब मैं करीब ११ साल की थी तो मेरी माँ अपने मायके मेरे बीमार मामा को देखने गयी मुझे व मेरे छोटे भाइयों को भाभी के हवाले छोड़कर.

और एक दिन मुझसे तीन साल छोटे भाई ने स्कूल से आकर मुझसे खाना माँगा..मैं मूड में नहीं थी..मैंने कहा कि अपने आप खाना ले लो तो उसने रसोई में जाकर फौरन चूल्हे की जलती लकड़ी उठाई और मेरी तरफ लपका..भाभी मुँह बाये ये सब देख रही थी..तो मुझे कुछ खतरे का आभास हुआ..सोचा कि इसके इरादे कुछ ठीक नहीं हैं..शायद ये मुझे दहकाना चाहता है..और वाकई में सीरिअस है ..ऐसा आभास होते ही मैं सर पर पैर रख कर भागी अपनी जान बचाने को..मैं चिल्लाई कि भाभी बचाओ मुझे...भाभी ने बहुत रोकना चाहा उसे पर उनकी नहीं चली..उसने नहीं सुनी उनकी..वो दुष्ट अपनी जिद पर अडिग रहा और मुझे ललकारता रहा कि आ आज तुझे मार डालूँगा..मैं आगे-आगे और वो मेरे पीछे-पीछे..बिल्ली भाग चूहा आया वाला खेल जैसे वहाँ चालू हो गया..उस पर जुनून चढ़ा था कि आज जीजी को खतम करके रहूँगा..अपने को बचाने के चक्कर में मेरे दिमाग में तरकीबें बहुत फास्ट आने लगीं...मैं ऊपर छत पर भागी अपनी जान लेकर..तो वह भी ऊपर आ गया फुर्ती से..और एक दीवार के चारों तरफ हम दोनों भाई-बहन परिक्रमा करने लगे भागते हुये एक दूसरे के पीछे..अब हँसी आती है..लेकिन उस दिन की सोचती हूँ तो लगता है कि जैसे वो घटना कुछ दिन पहले ही घटी हो..मन में उन पलों को याद करती हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं..मैंने राम-राम जपना शुरू कर दिया कि लगता है कि अब नहीं बचने वाली मैं आज ये मुझे भस्म कर देगा..उस भाई की गुस्सा बहुत तेज थी..मुझसे ३ साल छोटा था तो क्या हुआ..भाई जब सताते हैं तो दुष्टता पे उतर आते हैं..ये जाना-माना सत्य है..हर बहन का निजी अनुभव होता है इन शैतानो का..हा हा...

खैर, किसी तरह मैं भाग कर घर के सामने वाले पंडित जी के यहाँ छुप गयी जाकर...कहा, '' चाचा-चाची मुझे अपनी कोठरी में बंद कर दो..आज मुझे अशोक मार डालेगा अगर तुमने मुझे नहीं छुपाया यहाँ कहीं..बात बाद में पूछना..मैं उसे चकमा देकर आई हूँ..और शायद वो सूंघता हुआ आता ही होगा यहाँ, और बाहर से साँकल डाल कर ताला भी डाल लेना..वरना तुम्हारे यहाँ से आज एक लाश निकलेगी. '' चाचा-चाची ने कहा कि, '' हाय-हाय लल्ली ऐसी बुरी बातें न कहो अपने लिये, बुरा हो तुम्हारे दुश्मनों का ''..लेकिन मुझे अपनी जान की पड़ी हुई थी और उनकी बेफजूल की बातों का जबाब देने की फुर्सत नहीं थी. उनसे मैंने प्रार्थना की कि वो मुझे जल्दी से अपनी कोठरी में बंद कर दें. उन्होंने मुझे कमरे में बंद करके बाहर से साँकल मारी और ताला डाल दिया और मैं डर के मारे एक कोने में दम साध के बैठ गयी..तभी भाई भी आ गया उनके यहाँ और पूछ-ताछ करने लगा कि मैं उधर तो नहीं आई वो लोग सकपका के बोले, '' नहीं लल्ला, हमने तो उसको नहीं देखा आज लेकिन लल्ला बात क्या है. '' तो भाई की आवाज़ आई, '' जरा ये कोठरी तो खोलो वो इसमें शायद छुपी होगी. '' उन लोगों ने कहा कि कोठरी में कोई नहीं है उसमे ताला पड़ा है..फिर भी उसने खुलवा ली और मैंने जल्दी से वहाँ तह किये बिस्तरों के पीछे अपने को छुपा लिया और मन में सोच लिया कि बस अब आखिरी घड़ी आ ही गयी अब ये मेरा इंतकाल करके ही दम लेगा...सोचने लगी कि ये एक राक्षस है जो भाई के रूप में पैदा होकर मेरी जान लेना चाहता है..और मुझे खुद अपनी रक्षा के लिये जान बचाने भागना पड़ रहा है इधर से उधर..अब तो राम नाम सत्य ही समझो मेरा...उसने वहाँ ताका-झाँका और तसल्ली करके चला गया...उन लोगों ने बाहर के दरवाजे को बंद करके कोठरी खोली और मुझसे सब कहानी पूछी कि क्या हुआ..मैंने रोते-रोते सब बताया कि मेरी अम्मा तो मामा के यहाँ गयी हैं और इसने मुझे दुखी करना शुरू कर दिया है..तो वो मेरी कहानी सुनकर सुन्न से हो गये..मुझे शाम तक छुपना पड़ा उनके यहाँ अपनी जान बचाने के लिये..फिर रात में जब पिता व बड़े भाई आये तो मैं घर लौटी..और अगले दिन बड़े भाई ने उसको मुर्गा बनाया..हा हा..हाँ, ये बात भी बिलकुल सच है..वो केवल बड़े भाई से ही डरता था..तब उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हुई और गुस्सा शांत हुआ.

तो सारांश ये है कि भाई उम्र में छोटा हो या बड़ा कुछ कहा नहीं जा सकता सब ही समय-समय पर अत्याचारी होते हैं, रुआब झाड़ते हैं, आलसी होते हैं..बहनें घर का काम करती हैं...माँ की डांट खाती हैं इन भाइयों के लिये...उनकी फटकार और दुत्कार सुनकर दांत किलस कर रह जाती हैं...लेकिन...लेकिन हम बहनें फिर भी अपनी आदत से मजबूर हैं..अपने भाइयों का भला मनाती हैं..उनकी धौंस में रहती हैं..कभी-कभी इतना रुआब रखते हैं कि अकल काम करना बंद कर देती है..थर-थर भी कांपना पड़ता है जब आर्डर देते हैं...वरना धमकी मिलती है..हर समय अपनी अकलमंदी झाड़ते रहते हैं और हुकुम चलाते हैं..कभी चोटी खींचना और कभी चिढ़ाना आदि तो मामूली बाते हैं. भाइयों से किसी मुसीबत के समय अपनी रक्षा करवानी हो तो उस समय के इंतज़ार में हम बहनें ये सब सहती रहती हैं..सहना पड़ता है..लेकिन इस कलियुग में तो अधिकतर बहनें ही उनकी रक्षा करती नजर आ रही हैं..समय आने पर उन लोगों का कहीं पता नहीं लगता या बहाने कर देते हैं. खैर, अब लाओ ये भी बता दूँ कि आज को वो छोटा भाई जब भी उस दिन की घटना को याद करता है तो बड़ा शर्मिंदा महसूस करता है..अक्सर कहता रहता है, '' हाय, अगर उस दिन जीजी तुम्हें मेरे हाथों से कुछ हो गया होता तो मैं कभी भी उस पाप से मुक्त ना होता और अपने को माफ नहीं कर पाता. ''

तो मेरा कहना है कि बिधि के बिधान को इस संसार में कोई भी नहीं टाल पाया है..मेरा राम-नाम सत्य होते-होते बचा...मेरी किस्मत में और जीना लिखा था तो मैं जिन्दा हूँ और आज को आप सभी के साथ फेसबुक पर अपने हाथों से डिनर बनाकर खिलाने का लुत्फ़ उठा रही हूँ..अब ये ना कहियेगा कि डिनर दिखा के दिल जला रही हूँ..हा हा हा हाफेसबुक की पार्टी होगी तो खाना देखने ही के लिये तो होगा..तो फीस्ट योर आइज़ ( आँखें ) वाली बात होगी ही..जैसा कि फेसबुक के मेरे एक बुद्धिमान भाई का भी कहना है कि '' न इस खाने को सूंघ पाओ, न चाट पाओ और न ही खा पाओ ''..अब इतने बुद्धिमान इंसान ने ये कहा है तो सही ही है..( ना भी कहते तब भी यही सही होता..हा हा ) लेकिन इसमें अपना भी तो कोई कसूर नहीं. फेसबुक की पार्टियों में यही तो फेस करने की समस्या है..हम जो अपने गरीबखाने में जुटा सके वो सब आप भाइयों के सामने हाज़िर कर दिया..अब दिक्कत है तो बस मुँह में ले जाने की..हा हा हा हा..आप सभी को ढेरों शुभकामनायें.

Friday 20 August 2010

देश में नयी क्रांति का आभास ?

अगर ईमानदारी से कहूँ तो मुझे कभी भी राजनीति में इतनी दिलचस्पी नहीं रही..लेकिन पता नहीं क्यों जिस देश में मैंने जन्म लिया और दूर बैठ कर उस देश के लोगों की बढ़ती हुई समस्याओं के बारे में जरा भी सुनती हूँ तो मन विन्हल हो जाता है..बहुत दुख होता है सोचकर कि अंग्रेजों के हाथ से देश छुड़ाकर उस देश की सरकार या नेताओं ने अपने ही देश के लोगों को अपनी गंदी करतूतों से गुलाम बना दिया...हर जगह उनकी ही तूती बोलती है.

उनके हाथों में देश का वो हाल हो गया जैसे कि '' आसमान से गिरे तो खजूर में अटके '' कहने का मतलब कि अंग्रेजों से छुट्टी पायी तो देश की अपनी सरकार ने नाक मे दम कर दिया और जनता को गुलाम बना लिया. भारत में सरे आम भ्रष्टाचार की वजह से न जाने कितनी समस्याओं का जन्म हुआ है...देश को तरक्की पर पहुँचाने वालों के हाथ की बागडोर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है. सुनने में आया है कि करीब 90 % अफसर / बाबू और नेता लोग बेईमान हैं..जो अपना पेट भर कर चैन की डकारें लेते हैं..और वो कहते हैं ना कि जब किसी बात की हद हो जाती है तो जुनून अपने आप आ जाता है..और जब बढ़ता है तो कुछ होकर ही रहता है...जब नदी में बाढ़ आती है तो उसे रोकने का इंतजाम करना होता है..जब इंसान खाना जरूरत से अधिक खा ले तो बीमार हो जाता है या बेचैनी बढ़ जाती है तो आगे से उसके बारे में सावधानी बरतनी होती है..उसी प्रकार से ऐसा महसूस हो रहा है कि देश में बढ़ती हुई बुराइयों में उफान आ रहा है और हर उम्र के लोगों के दिल में खलबली मची है कि कब और किस तरह से इनका अंत किया जाये. खाली देश सुधार की बातें करके हाथ पर हाथ रखकर बैठने से तो काम नहीं चलने वाला...जब-जब किसी बुराई का अंत करना होता है तब क्रांति की हवायें चलने लगती हैं. तो अब खासतौर से भारत में युवा पीढ़ी के मन में जो आक्रोश बढ़ रहा है उसकी गर्मजोशी की हवा यहाँ बैठे हुये ही महसूस कर सकती हूँ ..और अब वह आग का रूप धारण करती हुई दिख रही है. लगता है कि अब कुछ होकर ही रहेगा..शायद एक नयी क्रांति का जन्म..जिसका सभी को आभास हो रहा है लेकिन कब, कौन और कैसे इसकी शुरुआत करेगा..कौन इसमें आगे बढ़कर इस पावन यज्ञ में पहली आहुति डालेगा मतलब कि एक संगठन बनाकर किसी सुधार को करने की पहली प्रतिक्रिया देगा..यह देखने का सभी को इंतज़ार है. गंदी राजनीति ने देश में पता नहीं कितने रोगों को जन्म दिया है और अब वह गंभीर बनकर विकृत रूप धारण कर चुके हैं..जो जनता से सहन नहीं हो पा रहा है..देश वासियों में उत्तेजना बढ़ती जा रही है इन बुराइयों के विरुद्ध. जिंदगी के हर क्षेत्र में सुधार के लिये आंदोलन की जरूरत पड़ी है..तभी दशा सुधरी है..वर्ना समझने वालों के कान पर जूँ नहीं रेंगती. हम आजादी के एक साल और आगे निकल आये हैं और इस आजादी का फायदा सबने तरह-तरह से उठाया..किसी ने अपना घर बनाया किसी को बर्बाद करके तो किसी ने नफरत की आग में जलकर अपनों का ही घर तोड़ा. दुश्मन से पिंड छूटा तो खुद अपने ही देश में एक दुसरे के दुश्मन बन बैठे..सब अपने-अपने तरीके से लगे रहे सोचने में..स्वार्थी बनकर नफरत की ज्वाला भी भड़कने लगी..मिलजुलकर देशवासियों ने भी कोई ऐसी भावना नहीं रखी कि देश की परेशानियों का निराकरण हो सके..धीरे-धीरे देश अनैतिकता, आतंकवाद, गरीबी, अत्याचार, भ्रष्टाचार से दूषित होता गया.

यह बात सही है कि हम अपने मुँह से ही कहकर गर्वित होते रहते हैं भारतीय होने पर..लेकिन अपने ही देश में उसके प्रति अनर्थ होने से बचा नहीं पाते..सालों हो गये फिर भी..तो कहाँ से हम आजाद हैं..चेहरा सचाई छुपा नहीं सकता. सी एम, पी एम सब भ्रष्ट उनके चमचे भ्रष्ट और चमचों के चमचे भ्रष्ट..वो जनता को देते कष्ट..कुछ दुष्ट तो कुछ महा दुष्ट..अपनी जनता को करते हैं रुष्ट..जनता अपनी सरकार को इष्टदेव का स्थान देती है लेकिन सरकार अपनी आँखें मूंदकर बिल्ली की तरह दूध पीती रहती है कि उसे कुकर्म करते हुये कोई देख नहीं पायेगा..सरकार की नीति है अपना पेट भरो और सबको आड़ में करो..जो पैसा देते हैं टैक्स का वो टापते रह जाते हैं और किसी का सहारा न पाकर सब कुछ सहते जाते हैं..बिजली के बिना देश अन्धकार में डूब रहा है, पानी की समस्या से अलग त्राहि-त्राहि..और गरीबी, मजबूरी, मँहगाई, बेरोजगारी, लाचारी से चोरी, लूट-खसोट की समस्यायें..अबलाओं तक का अपहरण हो रहा है. ये सब क्या हो रहा है अपने भारत देश में सोचकर दिमाग बौखला उठता है..क्या इसे ही आजादी कहते हैं..ये तो आजादी का नाजायज़ फायदा उठाना हुआ..और अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार कर बिलबिलाना हुआ.

लेकिन कब तक चलेगा यह सब ? कब तक सहेंगे लोग ? क्या यही आजाद देश का सपना था अपने बापू का ? लगता है कि शांति के लिये अब दूसरी क्रान्ति आने वाली है..जिसकी आँधी बबंडर का रूप धारण कर रही है...देश अब अपनों से ही गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है...अपने देश की गरिमा बनाये रखना, उस अधूरी आजादी को पूर्ण रूप देना अब इस देश के नौजवानों का काम है..व साथ में सभी उम्र के लोग अपनी क्षमता अनुसार इस यज्ञ में योगदान दें. स्वतंत्रता दिवस पर केवल तिरंगा लहरा देने भर से काम नहीं चलने का.

Thursday 19 August 2010

लंदन में 15 अगस्त 2010 का भारतीय स्वतंत्रता दिवस समारोह

इस बार फिर सोचने लगी थी कि 15 अगस्त के दिन हर साल की तरह यहाँ लन्दन में फिर चुपचाप पब्लिक के जाने बिना अपना भारतीय तिरंगा इंडिया हाउस में फहरा दिया जायेगा..जहाँ भारतीय दूतावास है...लेकिन क्या पता था कि इस साल यह कार्यक्रम कुछ फरक तरह से मनाया जायेगा...बस यूँ कहिये कि हमने जरा सी जिज्ञासा दिखाकर पूछतांछ की तो पता चला कि यहाँ लंदन में इस बार इतने सालों के बाद पहली बार हमारे भारतीय स्वतंत्रता दिवस को हाई कमिश्नर की तरफ से धूमधाम से मनाने का आयोजन रखा गया है...बस फिर क्या था हमने भी सोचा कि क्यों न वहाँ पहुँच कर स्वतंत्रता के इस पावन दिवस को मनाने का आनंद लिया जाये..और 11 बजे से चालू होने वाले कार्यक्रम के लिए हम लोग घर से निकल पड़े सुबह 9 बजे ही...क्योंकि लंदन में रहते हुये भी एरिया पर निर्भर करता है की कहाँ रह रहे हैं..उसी हिसाब से समय लगता है गंतव्य स्थान तक पहुँचने में...तो हम लोग 11 से पहले ही पहुँच गये '' इंडियन जिमखाना क्लब '' नाम की जगह...जहाँ ये उत्सव मनाया जाना था. वहाँ बाहर सड़क बुरी तरह ट्रैफिक से भरी थी और तमाम पुलिस तैनात थी सुरक्षा के लिये..तमाम लोग लंदन से बाहर के शहरों से भी आ रहे थे...गेट के अन्दर पहुँच कर सबने नजरें दौड़ायीं और भीड़ में खड़े होने के लिये अपना स्थान चुना..और इंतजार करने लगे कमिश्नर साहेब का..इंतज़ार करते हुये 11 बज गये फिर सवा 11 हुये..इस तरह इंतज़ार करते समय गुजरता गया और उनका कहीं पता नहीं..आप ही सोचिये कि कमिश्नर साहेब भारतीय होने के नाते लेट तो होंगे ही...जैसे कि हमारे यहाँ हर चीज की रिवाज है...भारत में ट्रेन आती है तो लेट या पहुँचती है तो लेट, शादी-ब्याह में दूल्हा की बारात पहुँचती है तो लेट, कोई भाषण देने जाता है तो लेट...प्रोफेसर आते हैं क्लास रूम में तो वो लेट..खैर, किसी तरह वह निश्चित समय के आध घंटा बाद अपनी तशरीफ़ लाये और बिल्डिंग की छत पर पहुँचे और फिर लोग-बाग फोटो की खींचा-खाँची में लग गये...हम साँस साधे उस पल का इंतजार करने लगे कि कब झंडा ऊँचा हो..उन्होंने फिर देर लगायी...कुछ गप-शप की कुछ V I P लोगों से हाथ मिलाते हुये और उसके बाद राम-राम करके झंडा ऊँचा करने का समारोह संपन्न किया..और फिर किसी महिला ने स्पीच दी..उन्हीं समस्याओं पर जिनके बारे में हम, आप सभी जानते हैं कि हमारे भारत को पराधीनता से मुक्त होने के बाद भी क्यों उन भयानक परिस्थितियों और समस्याओं से गुजरना पड़ रहा है जो हमें स्वतंत्र होने का आभास नहीं दिलाते और संभवतया हम भारतवासी इसके बारे में क्या कर सकते हैं कि देश की दशा सुधर सके..आदि-आदि...

और स्पीच के तुरंत बाद पार्क में लगे हुये पंडाल में और उसके बाहर भी खाने के जो तमाम स्टाल थे उनके चारों तरफ भीड़ से जगह भरने लगी...जहाँ शुद्ध शाकाहारी खाने का इंतजाम किया गया था..भारत के उत्तर, दक्षिण, गुजरात और पंजाब के तरह- तरह के स्वाद के खाने व मिठाइयाँ थीं साथ में चाय का इंतजाम और मिनरल वाटर की हजारों बोतलें और साफ्ट ड्रिंक जैसे कि कोका-कोला और फ्रूट जूस के पैकेट सब कुछ फ्री में..ये सारा कुछ इंतजाम लंदन के तमाम भारतीय रेस्टोरेंट के मालिकों की तरफ से स्वतंत्रता दिवस के सम्मान में फ्री किया गया. खाने की इतने चीजें थीं कि दो-चार चीजों को खाकर ही पेट भर जाये..लेकिन कुछ लोग जानते हुये भी कि सब नहीं खा पायेंगे फिर भी प्लेटों में सब भर लेते हैं और बाद को खाना जमीन पर फेंकते हैं या इधर-उधर चुपचाप रख देते हैं..और देखने पर सोचना पड़ता है की दुनिया में तमाम लोग इस खाने के लिये तरस रहे होंगे..तो यहाँ भी वही नजारा देखने को मिला. अच्छा हुआ कि वहाँ कोई पान का स्टाल नहीं था वर्ना लोग इधर-उधर पुचुर-पुचुर थूकते..कूड़ा तो अधिकतर डब्बे में डालने की वजाय जमीन पर डालते ही रहते हैं. भारतीय जहाँ भी जाते हैं अपनी आदतें तो साथ में ही ले जाते हैं ना...हाँ तो, खाना भी चल रहा था..और उधर दूर पर स्टेज पर भंगड़ा नाच-गाना शुरू हो गया..बताना जरूरी है कि यू. के. में भंगड़ा डांस और गाना बहुत पापुलर है...हम भी फटाफट पहुँचे देखने स्टेज के पास. देखा कि सब की सब कुर्सियाँ पहले से ही जब्त हो चुकी हैं..पंडाल में भी कुछ लोग एक कुर्सी पर बैठ कर अपने पैर पसारे चार कुर्सियों को घेर कर बैठे हुये थे पूछने पर पता लगा कि उनके साथ के कुछ लोग बाहर बैठे स्टेज का शो देख रहे हैं तो उनके लिये सुरक्षित रख छोड़ी हैं..कहने का मतलब कि बाहर भी वह कुर्सियों पर बैठे हैं और अन्दर वाली कुर्सियों को किसी की निगरानी में छोड़ गये हैं..आप लोग मतलब समझ गये होंगे कि हमारे देशवासियों की ये एक और अदा ( आदत ) है कि एक सीट की वजाय चार घेर लेते हैं चाहें दूसरे व्यक्ति को खड़े रहना पड़े..चलिये छोड़िये भी, हम सभी वाकिफ हैं इन बातों से...फिर हम जमीन पर आराम से पसर गये और थोड़ी ही देर में मौका देखते ही किसी के उठने पर उस चेयर पर जाकर आराम से जम गये..तो बात हो रही थी मनोरंजन की...स्टेज पर के मनोरंजन में प्रमुखता भंगड़ा दिखाया गया साथ में भरत नाट्यम और दूसरी प्रकार के डांस भी...यहाँ नीसडन नाम की जगह में लंदन का प्रसिद्ध '' स्वामी नारायण मंदिर '' के शिष्यों ने बहुत सुन्दर गाना गाकर तिरंगे को हाथ में लेकर डांस किया..तमाम सिंगर्स ने देशभक्ति के गाने गाये..जो दिल की गहराइयों में उतर गये और वहाँ का पूरा माहौल झूम उठा...तमाम बच्चे व बड़े लोग उठकर नाचने और गाने लगे गाने सुनकर..कितने लोग अपनी राष्ट्रीय तिरंगे की डिजाइन के कपड़े पहने घूम रहे थे..छोटे बच्चे तिरंगे पकडे हुये थे..और फोटो खिंचवा रहे थे..सारे बातावरण में उल्लास और उत्साह था..कुछ लोगों को पुरूस्कार बितरण किये गये जिनमें भारत से आई हुई एक क्रिकेट टीम भी थी उसमें वो लोग थे जिन्हें ढंग से दिखाई नहीं देता..सभी लोग नीली यूनिफार्म में थे..उस टीम ने इंग्लैंड को तीन बार मैच में हराया तो उस सम्मान में कमिश्नर नलिन सूरी जी ने टीम के हर व्यक्ति को अलग-अलग गिफ्ट के बैग दिये..उसके बाद भी गाने वगैरा चलते रहे और फिर करीब चार बजे कार्यक्रम का समापन हुआ.

एक बात बताना भूले ही जा रही थी..कि भारत पर मुफ्त में तमाम लिटरेचर भी बैग में भर कर ले जाने को दिया जा रहा था...मुंबई, चेन्नई, दिल्ली, गोवा, महाराष्ट्र, राजस्थान आदि जगहों की जानकारी के बारे में..उसके अलावा और भी बहुत कुछ..सभी लोगों को डिजाइनर पैक में पेड़े की मिठाई भी पकड़ाई जा रही थी...इस तरह सारा दिन फ्री का मनोरंजन हुआ..उसके बाद हमने घर की रास्ता पकड़ी...

ये मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर लो पानी
जो शहीद हुये हैं उनकी जरा याद करो क़ुरबानी.

नेहरु जी की आँखों में इस गाने को सुनकर आँसू आ गये थे..है ना..? जय हिंद !

लंदन में 15 अगस्त मनाना जख्मों पर नमक छिडकने जैसा है

भारत देश हमारा प्यारा
झंडा ऊँचा रहे हमारा...

जब से अपने भारत देश ने अंग्रेजों के चंगुल से मुक्ति पाई है उसमे एक साल और बढ़ गया है..15 अगस्त के दिन भारत के हर शहर, गाँव, गली-कूचे..देशभक्ति से ओत-प्रोत लोगों की बातों से गुंजित होंगे...गाने-फ़िल्में, डांस आदि के कल्चरल प्रोग्राम होंगे, स्पीच होगी और सड़कों पर तरह-तरह की वेश-भूषा में परेड निकलेंगीं...और लोग भीड़ में धक्का खाते हुये, या घर की छतों से उन्हें देखने का आनंद उठायेंगे...... जिन्हें दिल्ली जाकर भीड़ में शामिल होकर लालकिले पर झंडा लहराते हुये देखने का व प्राइम मिनिस्टर की दी हुई स्पीच सुनने का और परेड देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होगा वह अपने घर या चौपाल में बैठे टीवी पर ही देखकर दिल्ली में हुये उत्सव का आनंद लेने की कोशिश करेंगे. स्कूलों के बच्चे लाइन में खड़े होकर ( जैसा मुझे अपना बचपन याद आता है ) '' 'जन-गण-मन' और '' वन्देमातरम '' जैसे देशभक्ति के गाने गायेंगे..आसमान में पतंगें उड़ रही होंगी..क्या सीन होगा...और हम यहाँ बैठे हुए ज़ी टीवी पर उनकी कुछ झलकियाँ देखकर अपने देश के बारे में सोचकर अपनी आँखे नम करेंगें..क्योंकि यहाँ इतनी दूर रहकर टीवी की झलकियाँ ही तिरंगे को दिखाकर दिल में तरंगें पैदाकर हलचल मचाकर अपना गुजरा हुआ जमाना याद दिला देती हैं...इन तरंगों का भी उठना बहुत जरूरी है...कितने ही देशभक्त पतंगों की तरह देश पर कुर्बान हो गये. गाँधी जी ने, साथ में और भी तमाम देश-भक्तों ने पता नहीं क्या-क्या झेला देश की आजादी को प्राप्त करने के लिये और साथ में न जाने कितने और लोगों ने भी कुर्बानियाँ दीं जिनके नाम भी नहीं पता सबको.

लेकिन इतना सब कुछ हुआ..क्यों हुआ..देश को आजाद कराने के पीछे उन महान आत्माओं के सपने थे अपने देश की सुन्दर तस्वीर के. लेकिन लोग कैसे रहेंगे आजादी के बाद...और उनके इस दुनिया से जाने के बाद और उस आजादी का भविष्य में किस तरह इस्तेमाल किया जायेगा इसका उन लोगों को कोई अनुमान नहीं रहा होगा. जो गाँधी जी के सिद्धांत थे उनपर कितना अमल हो रहा है ? अहिंसा की जगह हिंसा का प्रयोग, शांति की जगह अशांति, बेईमानी, रिश्बतबाजी, हर जगह फैला आतंक, भ्रष्टाचार, दरिद्रता, अनैतिकता, पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव..और भी न जाने कितनी समस्यों से देश ग्रस्त हो चुका है...इनका निवारण करने की तरफ कौन से कदम उठे हैं ? गरीबी, अत्याचार, लोगों के प्रति अन्याय..किसी भी क्षेत्र में सुधार होता नजर नहीं आ रहा है...जनता टैक्स देती है लेकिन उसका सदुपयोग उनके इस्तेमाल के साधनों की तरफ नहीं बल्कि किसी और तरफ नाजायज रूप में खर्च होता है....

बिजली, सड़कें, गंदगी, पानी और महँगाई से सूखता लोगों का खून
लाचारी, मजबूरी, कानून का डर शांत कर देता है तब उनका जुनून.
इन सब बातों को लिखते हुए, जिनसे आप सब लोग मुझसे अधिक परिचित हैं, सोचती हूँ कि कुछ लोगों के दिल में ये ख्याल आ रहा होगा या जिज्ञासा हो रही होगी कि मैं आप लोगों को बताऊँ कि यहाँ यू. के. में 15 अगस्त का दिन कैसे मनाया जाता है..लेकिन आपको शायद ताज्जुब होगा कि इतने साल यहाँ रहने के वावजूद भी मैंने इस बात पर कभी गौर नहीं किया था..मैं इस तरह के समारोह के बारे में अनजान रही थी..इस बारे में कुछ विदित ही नहीं हो पाया था अब तक. एक तो अंग्रेज लोग हमारे भारतीय स्वतंत्रता-दिवस को क्यों मनाने लगे..ये तो वही बात होगी कि किसी के हाथ से सुई लेकर उसी की आँख में चुभो दो..मतलब ये कि उन पर ज़ोर दो कि तुम लोग हमारे भारतीय स्वतंत्रता-दिवस को क्यों नहीं मनाते इस देश में. अरे भाई, जो हमारा देश छोड़ने पर मजबूर हुये उनको याद दिलाकर जले में नमक छिडकने जैसा हुआ कि नहीं ये ? इस बारे में कोई जश्न यहाँ खुले आम नहीं होता. हमारे अपने आजादी-दिवस पर भारतीयों के लिये न कोई छुट्टी का दिन रखा गया है ( इनके अपने त्योहारों के दिन होते हैं जिन पर छुट्टी होती है ) न कोई झंडा लहराना, न परेड न स्कूलों में कुछ..और न ही लाइब्रेरी में हमारे स्वतंत्रता दिवस को इस देश में मनाने के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध है. लेकिन यहाँ कुछ जगहों पर जहाँ अधिक भारतीय रहते हैं वहाँ भारतीय लोग मिलकर किसी हाल वगैरा में लोकल काउंसिल की मदद से इस दिवस को मनाने का आयोजन रखते हैं..और लन्दन में भारतीय विद्या-भवन में भी इस अवसर पर समारोह मनाया जाता है जिसमे भारतीय नृत्य-गाना, सितार और तबला-वादन आदि का प्रोग्राम होता है. और भारतीय हाई कमिशनर '' रायल केनजिंगटन पैलेस गार्डेन '' नाम की बिल्डिंग के बाहर अपने देश का तिरंगा फहराता है और वहाँ के सुन्दर गार्डेन या हाल में स्पीच देता है...उसके बाद वहाँ पर कुछ कल्चरल प्रोग्राम होता है नाच-गाना इत्यादि...और खाने आदि का कार्यक्रम होता है...इस बार का प्रोग्राम है: 15 अगस्त को 10.30-3.00 तक के प्रोग्राम में 11 बजे सुबह भारतीय हाई कमिशनर नलिन सूरी अपने देश का तिरंगा ऊँचा करेंगे उसके बाद '' इंडियन जिमखाना क्लब '' में खाने का प्रबंध होगा जहाँ भारत के सभी क्षेत्रों के खाने के स्वाद के स्टाल होंगे व भारतीय कल्चरल प्रोग्राम भी होंगे जिसमे शायद भरत-नाट्यम नृत्य और संगीत आदि है.

आप सभी पाठकों को व हिन्दयुग्म से जुड़े सभी सदस्यों को इस स्वतंत्रता दिवस पर बधाई व मेरी शुभकामनायें...जय हिंद ! वन्देमातरम !

Saturday 7 August 2010

कौन सी टेंशन जी ?

कमाल की चीज़ है ये टेंशन..इसके जलवे हर जगह देखने में नजर आते हैं और इतनी पापुलर होती जा रही है ये..हाँ जी, ऐसा ही है..लेकिन गलतफहमी ना हो आपको तो इसलिये लाजिमी है बताना कि यह किसी चिड़िया का नाम नहीं है और ना ही कोई ऐक्ट्रेस, माडल या ब्यूटी प्रोडक्ट है..बल्कि एक खास तरह का सरदर्द है..या सोशल बीमारी..इसी तरह ही इसकी व्याख्या की जा सकती है..आजकल लोगों को जरा-जरा सी बात पर टेंशन हो जाती है...कोई जरा सी बात पूछो तो बिदक जाते हैं..टेंशन हो जाती है..तो सोचा कि आज टेंशन के बारे कुछ मेंशन किया जाये...लोग कहते तो रहते हैं कि '' यार कोई टेंशन नहीं देने का या लेने का '' तो सवाल उठता है कि लोग फिर क्यों टेंशन देते या लेते है...ये टेंशन एक लाइलाज बीमारी हो रही है..डोंट फरगेट कि अब कुछ लोग नेट पर काम करते हुये नेट पर ही खाने का ऑर्डर देकर पेट भरते हैं..बीबी को टेंशन नहीं देने का...या फिर बीबी को घर पर रोज खाना बनाने की सोचकर टेंशन हो जाती है ..दोस्त अपने दोस्त का हाल पूछते हैं तो कहेंगे '' कैसे हो पाल..तुम्हें कोई टेंशन तो नहीं होगी एक बात के बारे में सलाह लेनी है ''

एक वह दिन था जब लोग चटर-पटर जब देखो अपने घरों के आँगन, वरामदे, दरवाजे पर खड़े, छत पर बैठे, या फिर किसी चौपाल में, दूकानों में या कहीं पिकनिक पर बातें करते हुये दिखते थे..खुलकर बातें करते थे और खुलकर हँसते थे. स्टेशन ट्रेन, बस, दुकानों, फुटपाथ जहाँ देखो मस्त होकर बातें करते थे और सहायता करने में भी कोई टेंशन नहीं होती थी उन्हें..लेकिन अब आजकल कमरे में बंद करके अपना काम करते हैं, नेट पर जोक पसंद करते हैं और अगर बीच में कोई दखल दे आकर तो टेंशन हो जाती है. फेमिली के संग बात करना या बोलना मुश्किल..सब अजनबी से हो गये..सब नेट पर बिजी..दोस्तों के लिये समय है लेकिन दुखियारी बीबी के लिये नहीं..लेकिन उसमे भी कब टेंशन घुस जाये कुछ पता नहीं..वेटर को सर्व करने में टेंशन, हसबैंड को बीबी के साथ में शापिंग जाने की बात सुनकर टेंशन..बच्चों को माँ-बाप से टेंशन..तो दुनिया क्या फिर गूँगी हो जाये..अरे भाई, कोई हद से ज्यादा बात करे या किसी बात की इन्तहां हो जाये तब टेंशन हो तो अलग बात है..कहीं जाते हुये घर के बाहर कोई पड़ोसी दिख गया तो हाय, हेलो कर ली लेकिन उसके बाद हाल पूछते ही जबाब सुनने से बख्त जाया न हो जाये ये सोचकर उनको टेंशन होने लगती है..किसी बात का सिलसिला चला तो लोग बहाने करके चलते बनते हैं. डाक्टर मरीजों की चिकत्सा करते हैं तो कुछ दिनों बाद उस मरीज की बीमारी में दिलचस्पी ख़तम हो जाती है और अपनी टेंशन का मेंशन करने लगते हैं...तो मरीज़ को भी अपनी समस्या को मेंशन करते हुये टेंशन होने लगती है..और अपना इलाज खुद करने लगता है..जिस डाक्टर को मरीज की बीमारी की कहानियाँ सुन कर टेंशन होती है वो क्या खाक सही इलाज करेगा...डाक्टर ऊबे-ऊबे से दिखते हैं सभी मरीजों से..उनका बख्त कटा पैसे मिले..मरीज भाड़ में जाये..जॉब को सीरिअसली नहीं लेते..क्योंकि मरीजों से उन्हें टेंशन मिलती है. मन काँप जाता है कि जैसे इंसान किसी और गृह के प्राणी की विचित्र हरकतें सीख गया हो..बच्चे को उसके कमरे से खाने को बुलाओ तो उसे नेट पर ईमेल भेजना पड़ता है ऐसा सुना है किसी से...'' जानी डिअर, कम डाउन योर डिनर इज वेटिंग फार यू..इट इज गेटिंग कोल्ड. योर डैडी एंड आई आर वेटिंग ''..उसे पुकार कर बुलाओ तो कहेगा कि टेंशन मत दो बार-बार कहकर..अब तो मित्रों से भी बोलते डर लगता है..चारों तरफ टेंशन ही टेंशन दिखती है..हवा भी खिड़की से आती है तो उसे भी शायद टेंशन हो जाती होगी..किसी भिखारी को अगर पैसे दो तो उसके चेहरे पर संतोष की जगह टेंशन दिखने लगती है..दूकानदार से किसी चीज़ के बारे में तोल-मोल करो तो उसे टेंशन हो जाती है..लोग टेंशन देने या लेने की तमीज और तहजीब के बारे में सिर्फ अपने ही लिये सोचते हैं ..किसी का समय लेने में टेंशन नहीं लेकिन अपना समय देने में टेंशन हो जाती है..आखिर क्यों सब लोग चाहते हैं कि उनकी बातों से दूसरों को टेंशन ना हो लेकिन उनको दूसरों की बातों से टेंशन हो जाती है..और तो और खुद के लिये भी कुछ करते हैं लोग तब भी टेंशन नाम की इस बला से पिंड नहीं छूटता. घर का काम हो या बाहर का, पैकिंग करो, यात्रा करो, कहीं किसी की शादी-ब्याह में जाओ..हर जगह ही टेंशन इंतज़ार करती रहती है आपका. किसी से हेलो करना भूल जाओ, तो बाद में आपको टेंशन..ये सोचकर कि ना जाने उस इन्सान ने आपकी तहजीब के बारे में क्या सोचा होगा..ये जालिम '' टेंशन '' शब्द बहुत कमाल दिखाता है..इस टेंशन का क्या कहीं कोई इलाज़ है ? नहीं..शायद नहीं..मेरे ख्याल से यह आधुनिक बीमारी लाइलाज है.

आज कल जिसे इसका अर्थ भी नहीं पता है वो भी अनजाने में इसका शिकार बन गया है..जमाना ही टेंशन का है..जो लोग इससे जरा सा मुक्त हैं या जिनके पास कोई अच्छी चीज़ है तो उनकी ख़ुशी देखकर औरों को टेंशन होने लगती है..किसी के बिन चाहे ही ये चिपक जाती है..इसलिये अब जानकर इतना बिचित्र नहीं लगता..जहाँ देखो वहाँ एक फैशन सा हो गया है कहने का 'अरे यार आजकल मैं बहुत टेंशन में हूँ .' आप किसी को पता है कि नहीं पर अब इसका इलाज करने वाले लोग भी हैं ( लोग ठीक नहीं होते है वो अलग बात है ) ये लोग पैसा बनाने के चक्कर में हैं..और जिन्हें अंग्रेजी में सायकोलोजिस्ट बोलते हैं या अमेरिका में श्रिंक नाम से जाने जाते हैं..वहाँ पर तो ये धंधा खूब जोरों पर चल रहा है..पर क्या टेंशन दूर होती है उनके पास जाने से..मेरे ख्याल से नहीं..बल्कि शायद बढ़ जाती होगी जेब से मोटी फीस देने पर..पैसे वाले लोगों के लिये श्रिंक के पास जाना और मोटी फीस देकर डींग मारना एक फैशन सा बन रहा है वहाँ..अब तो हमें बनाने वाले उस ईश्वर को भी शायद टेंशन हो रही होगी.

और अब मुझको भी टेंशन हो रही है सोचकर कि कहीं आप में से किसी को इस लेख को पढ़कर टेंशन तो नहीं होने लगी है..तो चलती हूँ..बाईईईई...दोबारा फिर मिलेंगे कभी...

Friday 30 July 2010

सावन ना सही, सावन की बतियाँ ही सही

सावन आया बरसने को आँगन नहीं रहा
घटाओं में बरसने का पागलपन नहीं रहा
आती है बारिश, लोगों के दिल भीगते नहीं
नीम और पीपल के पेड़ों पे झूला नहीं रहा.

यही अब सच है...शायद. किसी ने डूबे-डूबे मन से बताया कि भारत में सावन के समय अब उतना मजा नहीं आता जितना पहले आता था...वो बरसाती मौसम..पानी बरसने के पहले वो मस्त बहकी हवायें..जो बारिश आने के पहले आँधी की तरह आकर हर चीज़ अस्त-व्यस्त कर जाती थीं..कहाँ हैं ? होंगी कहीं...पागल हो जाते थे हम सब उनके लिये...अब भी उनके आने का सब इंतज़ार करते हैं....उनका सब लोग मजा लेना चाहते हैं...और वो बादल कहाँ हैं जो सावन में बरसने के लिये पागल रहते थे...सुना है कि अब उनके बहुत नखरे हो गये हैं..बहुत सोच समझकर आते हैं बरसने के लिये...साथ में बदलते हुये समय के रहन-सहन के साथ सावन मनाने की समस्या भी सोचनीय हो गयी है...उन हवाओं की मस्ती का आनंद लेने को अब हर जगह खुली छतें नहीं...खुले आँगन नहीं..कहीं-कहीं तो बरामदे भी नहीं..घरों के पिछवाड़े नहीं जहाँ कोई नीम या पीपल जैसे पेड़ हों जिनपर झूला डाला जा सके. जहाँ बड़ी-बड़ी इमारतें हैं वहाँ शहरों में बच्चे पार्क में खेलते हैं तो वहाँ खुले में स्टील के फ्रेम पर झूले होते हैं जिन पर प्लास्टिक की सीटें होती हैं...आजकल कई जगह टायर आदि को भी सीट की जगह बाँध देते हैं...सबकी अपनी-अपनी किस्मत...आज के बच्चे पहले मनाये जाने वाले सावन का हाल सुनकर आश्चर्य प्रकट करते हैं...और उन बातों को एक दिलचस्प कहानी की तरह सुनते हैं.
लो अब बचपन की बातें करते हुये अपना बचपन भी सजीव हो गया जिसमें..आँगन, जीना, छत, झूला, आम के बौर, और पेड़ों पर पत्तों के बीच छिपी कुहुकती हुई कोयलिया, नीम और पपीते के पेड़ ..जंगल जलेबियों के सफ़ेद गुलाबी गुच्छे..दीवारों या पेड़ों पर चढ़ती हुई गुलपेंचे की बेल जो अब भी मेरी यादों की दीवार पर लिपटी हुई है...हरसिंगार के पेड़ से झरते हुये उसके नारंगी-सफ़ेद महकते कोमल फूल...सबह-सुबह की मदहोश हवा में उनींदी आँखों को मलते हुये सूरज के निकलने से पहले जम्हाई लेकर उठना और अपने दादा जी के साथ बागों की तरफ घूमने जाना...पड़ोस के कुछ और बच्चों को भी साथ में घूमने जाने के लिये बटोर लेते थे...और उन कच्ची धूल भरी सड़कों पर कभी-कभी चप्पलों को हाथ में पकड़ कर दौड़ते हुये चलना..आहा !! उस मिट्टी की शीतलता को याद करके मन रोमांचित हो उठता है...आँखों को ताज़ा कर देने वाली सुबह के समय की हरियाली व उन दृश्यों की बात ही निराली थी. जगह-जगह आम के पेड़ थे कभी जमीन पर गिरे हुये आम बटोरना और कभी आमों पर ढेला मारकर उन्हें गिराना...उसका आनंद ही अवर्णनीय है. अपने इस बचपन की कहानी में एक खुला आँगन भी था..बड़ी सी छत थी जहाँ बरसाती हवायें चलते ही उनका आनंद लेने को बच्चे एकत्र हो जाते थे. और बारिश होते ही उसमें भीगकर पानी में छपाछप करते हुए हाथों को फैलाकर घूमते हुए नाचते थे...एक दूसरे पर पानी उछालते थे...और उछलते-कूदते गाना गाते थे...बिजली चमकती थी या बादलों की गड़गड़ाहट होती थी तो भयभीत होकर अन्दर भागते थे और फिर कुछ देर में वापस बाहर भाग कर आ जाते थे...फिर भीगते थे कांपते हुये और पूरी तृप्ति होने पर ही या किसी से डांट खाने पर अपने को सुखाकर कपड़े बदलते थे...छाता लगाकर बड़े से आँगन में एक तरफ से दूसरी तरफ जाना...हवा की ठंडक से बदन का सिहर जाना....और मक्खियाँ भी बरसात की वजह से वरामदे व कमरों में ठिकाना ढूँढती फिरती थीं...अरे हाँ, भूल ही गयी बताना कि ऐसे मौसम में फिर गरम-गरम पकौड़ों का बनना जरूरी होता था...ये रिवाज़ भारत में हर जगह क्यों है...हा हा...क्या मजा आता था.
अब बच्चे उतना आनंद नहीं ले पाते..उनके तरीके बदल गये हैं, जगहें बदल गयी हैं ना घरों में वो बात रही और ना ही बच्चों में. ये भी सुना है कि सावन का तीज त्योहार भी उतने उत्साह से नहीं मनाया जाता जितना पहले होता था...लेकिन हम लोगों के पास मन लगाने को यही सिम्पल साधन थे मनोरंजन के..क्या आनंद था ! तीजों पर झूला पड़ता था तो उल्लास का ठिकाना नहीं रहता था...पेड़ की शीतल हवा में जमीन पर पड़ी कुचली निमकौरिओं की उड़ती गंध..वो पेड़ की फुनगी पर बैठ कर काँव-काँव करते कौये...और पास में कुआँ और पपीते का पेड़ जिस पर लगे हुये कच्चे-पक्के पपीते...काश मुझे वो सावन फिर से मिल जाये...नीम के पेड़ पर झूला झूलते हुये..ठंडी सर्र-सर्र चलती हवा में उँची-उँची पैंगे लेना..अपनी बारी का इंतजार करना..दूसरे को धक्का देना...गिर पड़ने पर झाड़-पूँछ कर फिर तैयार हो जाना झूलने को...आज भी सब लोग आनंद लेना चाहते इन सब बातों का पर अब वो बात कहाँ ..लोग बदले बातें बदलीं..रीति-रिवाजें बदलीं..बस बातों में ही सावन रह गया है.

गोरों की रसोई में हिन्दुस्तानी मसालों का राज

जहाँ तक भारतीय मसालों की खुशबू विदेशों में फैलने का सवाल या जिक्र है तो वो विदेशों में अभी से नहीं बल्कि पता नहीं कितने बरसों से फैली हुई है...सभी बड़े-बड़े फूड और ग्रॉसरी स्टोर भरे पड़े हैं भारतीय मसालों और आटा, दाल, चावल, घी, तेल से...सभी गोरे और काले लोग भारतीय खाने के क्रेजी यानी दीवाने हुए जा रहे हैं। 'करी' उन सबकी फेवरट डिश है..और चिकेन टिक्का मसाला तो सरताज बना है भारतीय '' करी '' में उन सबके लिये..मसालेदार चिकेन कोरमा भी चावल के साथ बहुत खाते हैं.. काफी समय पहले इटैलियन खाना टॉप पर समझा जाता था ब्रिटेन में फिर चाइनीज खाना हुआ टॉप पर लेकिन अब सालों से भारतीय खाना ही टॉप पर है और छा गया है उन सबके दिल-दिमाग और पेट पर. गोरे लोग तो हैं ही दीवाने भारतीय खाने के..जिसे वह जमकर खाते हैं..साथ में अफ्रीकन, चाइनीज, इटैलियन भी अब हमारे देसी खाने के शौक़ीन होते जा रहे हैं...और जर्मन लोगों की तो पूछो ही ना...हर जर्मन चाहें किसी उम्र का भी हो उसे भारतीय खाना बहुत पसंद है...यहाँ पर कुछ गोरों के कुत्ते भी करी पसंद करते हैं...उनके संग खाते-खाते उनकी भी आदत पड़ गयी....ये मजाक की बात नहीं बल्कि सही है...और '' करी '' शब्द से उनका मतलब होता है..भारतीय मसाले वाली डिश...यानी दाल या सब्जी..चाहें वह '' मीट करी '' हो '' वेजिटेबिल करी '' या '' लेंटिल करी '' ( दाल ). लस्सी भी बड़े शौक से पीते हैं ये लोग. अधिकतर गोरों को कहते सुना हैं कि उन्हें उनका खाना अब अच्छा नहीं लगता क्योंकि वह फीका होता है...यानि कि स्वादरहित...यहाँ हर तरह के मूड का फूड मिलता है और लोग अपने मूड के हिसाब से फूड खाते हैं...मतलब कि अब तो फ्यूजन फूड का भी कबसे फैशन चल पड़ा है...फ्रेंच फ्राइज ( french fries: आलुओं की तली हुई लम्बी फांके ) इन्हें यहाँ पोटैटो चिप्स भी कहते हैं...हाँ, तो इनके साथ करी भी खाते हैं अब लोग...पैकेट में जो बिकते हैं उन्हें क्रिस्प बोलते हैं...तो अब कुछ क्रिस्प या चिप्स भी यहाँ ब्रिटिश स्टोर्स में मसाला पड़े बिकने लगे हैं..पिज्जा के साथ फ्रेंच फ्राइज और आग में या ओवेन में भुने हुये आलू में सोया मिंस और राजमा की सूखी मसाले वाली सब्जी भर कर खाते हैं..जिसे जैकेट पोटैटो के नाम से बोलते हैं.
यहाँ भारतीय लोग तो हैं ही अपने खाने के शौक़ीन..घर में भी बनाते हैं और बाहर भी खाते हैं रेस्टोरेंट में. जो लोग भारत के जिस ख़ास क्षेत्र से आये हैं और जिन मसालों का इस्तेमाल उन क्षेत्रों में होता है भारत में वह सभी मसाले यहाँ भारतीय ग्रासरी या फूड स्टोर्स में उपलब्ध हैं. और कई सालों से यहाँ के अपने भी बड़े-बड़े नामी स्टोर्स जैसे कि: Asda,Tesco, Sainsbury, Waitrose, Marks & Spencer, Iceland, Co Op, Lidl (जर्मन) आदि ग्रासरी स्टोर्स या कहो फूड स्टोर भी तमाम भारतीय मसाले बेचने लगे हैं...कुछ मसाले तो जैसे काली मिर्च, तेजपत्ता, इलायची आदि और कुछ अन्य भी मसाले भारतीय दुकानों की तुलना में अब इन स्टोर्स में सस्ते मिलते हैं...साथ में इन स्टोर्स में स्वाद में बहुत ही उम्दा तरीके का दही मिलता है. जिन इलाकों में भारतीय लोगों की तादाद अधिक है वहाँ के ग्रासरी स्टोर्स में अब इंडियन कुल्फी जिसमे सभी तरह की जैसे केसर, बादाम, पिस्ता, आम से बनी हुई और साथ में गुलाबजामुन और गाजर का हलवा इत्यादि भी बिकने लगे हैं. उत्तर भारत, दक्षिण भारत, गुजरात और पंजाब सब तरह के खानों के रेस्टोरेंट हैं जहाँ मिठाइयाँ भी मिलती हैं...और ब्रिटिश लोग भी भारतीय मिठाइयों के शौक़ीन हो रहे हैं वह चाहें काले लोग हों अफ्रीका के या गोरे किसी भी देश के...समोसा और पकौड़े तो बड़े ही शौक से खाते हैं जैसे कि हम लोग...और उनमें अगर मिर्च कम लगे तो कहते हैं कि जितना अधिक चटपटा हो उतना मजा आता है खाने में.. हर बिदेशी के घर में यहाँ कई तरह के भारतीय मसाले मिलेंगे..ये बात और है कि सभी प्रकार के नहीं क्योंकि अब तक उन लोगों को सब तरह के मसालों का खाने में उपयोग करना नहीं आता..लेकिन उनका उपयोग जानने के लिये बहुत उत्सुक रहते हैं...मेक्सिकन और मोरक्कन लोग अपने खाने में जीरा का प्रयोग काफी करते हैं, मोरक्कन लोग हरीसा सौस बहुत खाते हैं अपने खाने में..जिसमे मुख्य रूप से सूखी लाल मिर्च होती हैं जिन्हें तेल, धनिया पाउडर व नीबू का रस डालकर पीस कर बनाते हैं और यह एक लाल रंग के पेस्ट की तरह दिखती है, ग्रीक लोग मसालों को अधिक इस्तेमाल नहीं करते बस जीरा, काली मिर्च पाउडर और मिर्च पाउडर का इस्तेमाल करते हैं, चाइनीज लोग जब करी बनाते हैं तो उसमें फाइव स्पाइस यानि कि पंच पूरन पिसे मसाले का प्रयोग करते हैं जो मेथी, सौंफ, कालीमिर्च, दालचीनी, लौंग और सोंठ ( सूखी अदरक ) का मिश्रण होता है...और इटैलियन लोग जब tomato sauce बनाते हैं pizza या pasta के लिये तो कभी-कभी उसमे bayleaf यानि तेजपत्ता डालकर बनाते हैं उससे sauce का flavour कुछ बढ़ जाता है. और वह लोग लाल सूखी मिरचों का इस्तेमाल उसे पीसकर भी करते हैं और साबुत मिरचों का इस्तेमाल हर्ब और चिली आयल बनाने में भी करते हैं...मतलब साबुत सूखी मिरचें और कुछ हरी हर्ब ओलिव आयल में कुछ दिन डालकर रखते हैं फिर उस चटपटे तेल को pizza पर छिड़क कर खाते हैं या उसे अन्य प्रकार से भी इस्तेमाल करते हैं अपने खाने में ( हर्ब कई प्रकार के होते हैं जो इटैलियन खानों में ऐसे इस्तेमाल करते हैं जैसे हम लोग अगर धनिया या पोदीना का इस्तेमाल अपने खाने में डालकर करें ) और ब्रिटिश गोरे लोग कुछ मसाले जैसे हल्दी, मिर्च, धनिया और जीरा पाउडर, गरम मसाला, कालीमिर्च पाउडर का और जायफल पाउडर का इस्तमाल ही अधिक करना जानते हैं...मेथी व सौंफ का इस्तेमाल करना वह लोग नहीं जानते...जायफल के पाउडर को सेव की चटनी, कुछ ख़ास प्रकार के केक व पालक की सब्जी में बहुत इस्तेमाल करते हैं. अमरीकन लोग apple यानि सेब से और pumpkin यानि कद्दू से मीठी डिश pie जिसे आप पेस्ट्री भी कह सकते हैं खूब बनाते हैं और जिसमे दालचीनी पाउडर का खूब प्रयोग होता है.
कई बार ऐसा हुआ कि जब सुपरमार्केट में कुछ खरीदने गयी तो किसी गोरी या गोरा ने मुझसे पूछा कि मैं उस मसाले का इस्तेमाल कैसे और किस तरह के खाने में करूँगी और वह फिर मेरे बताने पर बड़े कौतूहल से सुनते हैं...और कई बार सब्जियाँ खरीदते हुये वो लोग पूछते हैं कि मैं उस सब्जी को किस मसाले से बनाउँगी...बैंगन का उपयोग करना यहाँ के बहुत लोग नहीं जानते और एक बार जब मैं बैंगन खरीद रही थी तो एक लेडी को जिज्ञासा हुई कि उसका कैसे इस्तेमाल होता है..तो मैंने उसे बैगन से बनने वाली तमाम तरह की चीजें बतायीं और उनमें पड़ने वाले मसालों के नाम भी..अक्सर इसी तरह ये लोग नये मसालों का इस्तेमाल करना भी जानते रहते हैं..और हाँ, ये लोग रोटी, पराठा, पूरी, और नान बगैरा बनाने को झंझट समझते हैं और बचते रहते हैं...उन चीजों को रेडीमेड ही खरीदते हैं...इन लोगों को इलायची, नारियल और केसर का उपयोग भी करना नहीं आता..क्यों कि इनके खाने में ये नहीं पड़ती और मिठाइयों में वैनिला व अन्य प्रकार के एसेन्स पड़ते हैं...लन्दन में न जाने कितने भारतीय रेस्टोरेंट हैं जहाँ खाने वाले गोरों की संख्या उतनी ही मिलेगी जितनी कि भारतीय लोगों की..बल्कि कई बार उनसे भी ज्यादा..कुछ भारतीय रेस्टोरेंट सारा दिन खुलते हैं..कुछ केवल दोपहर और शाम को यानि कि लंच व डिनर के लिये और कुछ शाम को ही जो Take Away फूड कहलाते हैं जहाँ लोग खाना खरीदकर घर ले जाकर खाते हैं..और ऐसी जगहों पर अधिकतर अंग्रेज ही खरीदते हुये देखे जाते हैं जो भारतीय खाने के शौक़ीन हैं. आम की भी इन दिनों भरमार है हालांकि इस साल अभी लंगड़ा आम नहीं आया है..लेकिन चौंसा आम आ रहा है..और भी प्रकार के आम जैसे हनी पाकिस्तान से आ रहा है...एक आम करीब ५० रूपए का मिलता है यहाँ.

स्ट्राबेरी, सेव, नाशपाती, प्लम, रास्पबेरी , ब्लैकबेरी, रेड करेंट और आड़ू यहाँ ब्रिटेन में खूब उगाये जाते हैं. यूरोप के अन्य देशों से व अफ्रीकन देशों से भी तमाम खाने की चीजें आती हैं...स्पेन से तरबूज, खरबूजा, कई प्रकार के संतरे, वेस्ट इंडीज से केले, साइप्रस से भी तरबूज और खरबूजा, इटली से अँगूर, पीचेज, टमाटर, संतरे और अफ्रीका से तमाम तरह की सब्जियाँ जिनमे जमीन के अन्दर उगने वाली भी होती हैं, कद्दू व कच्चे केले...भारत से तो तमाम फल और सब्जियाँ आती हैं...उनकी तारीफ में क्या और कितना कहूँ...कई सालों पहले न इतने स्टोर थे और ना ही इतनी विविध प्रकार के फल व सब्जियाँ..लेकिन अब अन्य सभी चीजों के साथ मसालों की भी हर जगह भरमार है...
मसालों ने बनाया हर देश में मुकाम, हिंदुस्तान का ऊँचा कर दिया नाम...है ना कमाल की बात..? जय हिंद !!!!!

''नारी को क्यों भस्म होना चाहिये?''

शांत चित्त में एक चिंगारी सी भड़क पड़ती है जब किसी बात पर पीड़ित महसूस करते हुए भी अधिकतर नारियाँ चुप रहती हैं. मैं भी चारों तरफ का माहौल देख-भाल के सहम जाती हूँ कि कौन लोगों के मुँह लगे. लेकिन कुछ बातें जो नश्तर की तरह चुभ जाती हैं अन्दर ही अन्दर जो समस्त नारी जाति पर लागू होती हैं और जिन बातों को अब भी लोग जबरदस्ती करने/कहने पर तुले हुए हैं, तो मेरा मन कुछ समय के लिये अशांत सा हो जाता है. जिस बात से मन में एक ज्वाला सी धधकी उसे लिखने वाला एक पुरुष ही है.. ''स्वयं को स्वाहा कर, औरों के जीवन का प्रकाश बन.'' इस पंक्ति को पढ़ते ही मन बहुत दुखी सा हो गया, मन में चिंगारी सी भड़की. कोई इंसान नारी को स्वाहा करने की बात करता है ताकि वह एक शक्ति बन सके...तो पढ़ते ही मैं सोचने पर मजबूर हो गयी कि लोग क्यों हर समय नारी को आगे कर देते हैं स्वाहा होने को. ये रटी-रटाई सी पंक्तियाँ हैं जिनकी विस्तृत समालोचना किये बिना ही लोग कह देते हैं. जैसे कि वह कोई घास-फूस या समिधा-सामग्री हो जो आग में स्वाहा करने को बनी है. और फिर लोग उसे भस्म करके उससे शक्ति की अपेक्षा रखते हैं. वो तो वैसे भी युगों से इतना कुछ करती और सहती आई है कई रूपों में. बिना किसी के कहे ही वह अपने तमाम कर्तव्यों को निभाती आई है. और फिर एक तरफ तो उसे अबला कहा जाता है तो दूसरी तरफ उसे भस्म करके उससे शक्ति की आशा करते हैं. तो भई, उसे किस तरह भस्म होना चाहिये और किस तरह की शक्ति मिलेगी उसे भस्म करके ? मन ही मन में तो वह समाज के लोगों की किसी ज्यादती या रीतियों-कुरीतियों का शिकार बन कर भस्म होती ही रहती है. उसके बाद भी लोग पता नहीं क्या अपेक्षा करते हैं उससे. लोग जब उसे दुर्गा कहते हैं तो यह नहीं सोचते कि उसमे वो दैविक शक्ति नहीं है जिससे सीता जी जल गयीं थी..और कभी जब औरत के बलिदानों की बात चलती है कि ''आज की औरत सतयुग की सीता से भी अधिक अग्नि परीक्षायें देती है'' तो तमाम गहन धार्मिक प्रवृति के लोग इसे सीता जी का अपमान समझते हैं और भड़क पड़ते हैं कहते हुये कि सीता जी से आज की औरत की कोई समानता नहीं और तरह-तरह के उदाहरण देते हुये पूरी रामायण ही उठा लाते हैं बहस करने के लिये. तो अगर ऐसा है तो फिर आज के पढ़े लिखे लोग नारी के बारे में ये क्यों कहते हैं बिना सोचे समझे हुये कि ''स्वयं को स्वाहा कर, औरों के जीवन का प्रकाश बन.''

यह पढ़कर मेरे मन को लगता है कि नारी को लोग कोसने से बाज नहीं आते. समय बदला है, और वह पढ़ी-लिखी व समझदार है फिर भी समय-समय पर उसकी अवहेलना की जाती है और जरा-जरा सी बातों में मखौल उड़ाया जाता है उसका. अपने को बहुत बहादुर कहने वाली औरतें भी कभी अपनी गलती ना होने पर भी पुरुषों के मगरूर व्यवहार पर सहमी रहती हैं. औरत डर के कारण व पुरुष अपने बचाव में कहते रहते हैं कि अब समय बदल गया है..अब वह हालत नहीं रही औरत की..वह मजबूत है समझदार है, आदि-आदि. लेकिन यह बातें कितनी सही हैं ? और तुर्रा ये कि औरत को भस्म करके उससे शक्ति हासिल करने की भी बात की जाती है. अरे, उसे भी तो कभी पुरुष की इन्ही खूबियों की जरूरत हो सकती है जीवन में. तो कितने पुरुष हैं जो उसकी जरूरत के समय उसकी शक्ति बनते हैं..अधिकतर को तो जलन होने लगती है. और कितने ही औरत की उपेक्षा करके उसे सताते रहते हैं. औरत कोई घास-फूस या लकड़ी तो है नहीं जो उसे आज्ञा दी जा रही है कि ''स्वाहा हो जा'' और फिर ऐसा होने पर तो वह राख बन जायेगी और किसी काम की ना रहेगी..तो उसे अपनी स्वाभाविक मौत ही क्यों नहीं मरने दिया जाता..क्यों उसके लिये जीते-जी चिता सुलगा कर झोंकने का प्रयास करते हैं लोग ऐसी बातें करके ? कई बार तो औरत की इज्ज़त की बात करने वाले समाज के ठेकेदार खुद बुरी नज़र रखते हैं उसपर. और जो अपनापन दिखाने वाले लोग हैं वो उसपर मुसीबत आने पर निगाहें बचाकर बगलें झाँकने लगते हैं. ऊपर से जुर्रत ये कि उसे जीते जी भस्म भी करना चाहते हैं. क्यों...आखिर क्या बिगाड़ा है उसने किसी का..क्या उसे दर्द नहीं होगा...क्या उसे अपने तरीके से जीने का अधिकार नहीं है..?

वास्तव में लोगों की इस तरह की कही या लिखी बातें पढ़कर या विचार जानकर मन को बहुत पीड़ा होती है और लगता है कि नारी को समाज में बस दिखावे के लिये ही ऊँचा दर्ज़ा दिया जाता है लेकिन ''भस्म '' और ''स्वाहा'' या अन्य इसी तरह के तमाम शब्दों का इस्तेमाल करके उसे कोसा जाता है. अगर वह भस्म हो गयी तो कहाँ से ताकत देगी ?


Thursday 22 July 2010

फेसबुक पर अपनों का पागलखाना

फिलासफाना नजरिये से देखिये तो यह दुनिया एक पागलखान ही तो है..जहाँ हर तरह के पागल भटकते हुये नजर आयेंगे...ऐसा ही कुछ यहाँ फेसबुक पर भी देखने में आया...और तब मन में बिचार आया कि यदि कोई ऐसी जगह बनाई जाये जहाँ सभी तरह के पागल एक छत के नीचे एकत्र होकर अपने पागलपन की बातें शेयर कर सकें तो कितना अच्छा हो...

तो फेस बुक के प्यारे साथियों, आप सबके लिए एक विशेष हर्ष की सूचना है कि यहाँ फेसबुक पर समय की नजाकत और जरूरत को देखते हुये प्रति जी उर्फ़ प्रतिबिम्ब जी की अनुकम्पा से एक पागलखाने का निर्माण हुआ है...सीधे शब्दों में कहने का मतलब है कि उन्होंने एक पागल खाना फेसबुक पर खोला है...' अपनों का पागलखाना.कॉम '. और उनके ही कर कमलों से इसका उदघाटन समारोह भी संपन्न हुआ...इससे सम्बंधित सभी सेवायें फ्री हैं...तात्पर्य यह है कि आपको बिना एक फूटी कौड़ी खर्च किये बिना ही भरती कर लिया जायेगा...वह हर इन्सान, जिसे इस पागलखाना की खबर मिली, पागल हुआ जा रहा है या यूँ कहिये कि पागल होने के लिए पागल हुआ जा रहा है.. ताकि उसका एडमिशन हो सके...पागलखाने की पापुलैरिटी की खबर आग की तरह फ़ैल चुकी है..इसमें भरती होने के लिये लोगों में होड़ लगी है...लोग कतार में खड़े हैं...यहाँ हर तरह के पागलों की जरूरत है...जितने ज्यादा लोग इसमें भरती होंगे उतना ही इसके और विख्यात होने के चांसेज हैं...तो मित्रों आप सब लोग इसे ज्वाइन करने के लिए आमंत्रित हैं...जो भी इसमें भरती होना चाहे बिना किसी फीस के आसानी से बुकिंग हो जायेगी...सब पागलों के बिना पागलखाना बनाने का कोई मतलब ही नहीं था...जब पागल देखे तो पागलखाना बना...पागलों के लिये एक ठिकाना मिला...इस बहाने कम से कम हम सब पागल मिल तो सकते हैं...हा हा हा हहहह्ह्ह्ह

अब आप शायद जानना चाहेंगे कि इसके निर्माण के पीछे क्या वजह/राज़ है..और किसके भेजे में इसका बीजारोपण हुआ..तो आपकी शंका-समाधान करना मेरा परम कर्त्तव्य बनता है..हुआ यूँ कि इन दिनों फेसबुक पर कई सारी शादियों व लोगों के जन्म दिनों की पार्टियों में जाना-आना हुआ..वहाँ तरह-तरह के लोगों से मिलना-जुलना भी हुआ..जैसा कि सबको पता है कि इंसान एक सामाजिक प्राणी है...और इन पार्टियों की जरूरत भी एक सामाजिक आवश्यकता होती है..और इसकी वजह से तमाम लोग एक दूसरे के बारे में कितना जान जाते हैं व आपस में मिल जुल कर प्रेम-भाव को डेवलप करते हैं..और दिमागी टेंशन दूर होती है..तो वहाँ आये हुये कई मित्रों से इन्फार्मल तरीके से पेश आना हुआ..उस समय के दौरान ऐसा महसूस हुआ कि कुछ लोग शायद पागल लोगों की श्रेणी में आते हैं...इस बात को सोचकर मन में कसक सी रही...कुछ घंटों के उपरांत मेरे दिमाग में ख्याल आया कि इन बेचारों को फेसबुक पर होते हुये इन पार्टियों को अटेंड करना भी जरूरी है..वर्ना तो ये सब और पागल हो जायेंगे...लेकिन जितना भी इनका पागलपन है क्या इसके बारे में कुछ किया जा सकता है...फिर सवाल उठा कि क्या होना चाहिये..तो बिजली के झटके की तरह मेरे दिमाग में ख्याल आया कि क्यों ना यहाँ एक पागलखाना खोला जाये..लेकिन कैसे..? सोचा किसी एक्सपर्ट से पूछा जाये इस आइडिया को बता कर..तो वहीं पर हम सबके एक परम मित्र प्रतिबिम्ब जी पधारे हुये थे..जिनसे मैंने अपने आइडिया के बारे में जिक्र किया..बस कहने की देर थी कि उन्हें यह आइडिया पसंद आ गया..फिर आगे की स्टोरी ये है कि आनन-फानन में कुछ घंटों में ही उन्होंने फटाफट एक पागलखाना भी खोल दिया...सारे मित्रों के बीच ये खबर जैसे ही पहुँची उन्होंने आव देखा न ताव..बस दौड़ लगा दी पागलखाने की तरफ..और बिना किसी प्रयास के पागलों की भीड़ लग गयी वहाँ...अब हाल ये है कि हर कोई अपने को पागल घोषित करने में लगा हुआ है..अब आप खुद ही इसकी पापुलैरिटी का अंदाज़ा लगा सकते हैं..हर कोई पागलपन का प्रमाणपत्र हासिल करने में लगा हुआ है...इन पागलों के बीच में पागलखाने के बॉस पागल हुये जा रहे हैं या कहिये कि हो चुके हैं..इस पागल खाने के कुछ नियम भी हैं..और इसकी लिंक भी दे रही हूँ यहाँ..ताकि बिना समय व्यर्थ किये हुये आप लोग भी इसका लाभ उठाइये...और एक खास बात ये है कि प्रतिबिम्ब जी को हम सब प्यार से प्रति जी कहते हैं..वैसे वो ' प्रवचन बाबा ' ' पागल बाबा ' या पी. बी. नाम से भी अब जाने जाते हैं..और जब से ये पागलखाना खुला है वही इसके बॉस हैं और इस पागल खाने में उन्हें सब ' पागल बॉस ' के नाम से जानते हैं..वह बहुत ही खुशमिजाज पागल हैं..ख़ुशी या दुख की बात तो ये है इस पागलखाना के बारे में कि जो आता है इसकी बातों से अभिभूत हो जाता है...हम सबके शुभचिंतक प्रति जी उर्फ़ हमारे ' पागल बास ' पागलों में इतने सेवारत हुये कि खुद भी एक ग्रेट पागल हो गये और आज उन्हें बॉस की पोजीशन ही सूट करती है...उनके अलावा जो और पागल हैं वो अपनी पोजीशन खुद सेलेक्ट करते हैं लड़-झगड़ कर..या एक दूसरे को मारकूट कर...जो अधिक होशियार हैं उनका अपना गैंग भी बनने लगा है...कोई पागलों का लीडर है कोई उसका असिस्टेंट, या सेक्रेटरी इत्यादि...अक्सर संकट का समय आने पर जब प्रति जी पर प्रतिक्रिया होती है तो प्रवचन बाबा का रूप धारण कर के इधर-उधर अचानक प्रकट होते रहते हैं...( जुओं की समस्या से त्रस्त होकर उन्होंने इन दिनों अपनी दाढ़ी-मूँछ न रखने का फैसला किया है..तो इन दिनों ' पागल बाबा' या ' प्रवचन बाबा ' की इमेज बदली नजर आयेगी ).

इस पागलखाना के बारे में जानने लायक कुछ बातें:

१. निशुल्क दाखिला यानी एडमिशन...यहाँ हर तरह के नमूने के पागलों को बिना किसी समस्या के भरती कर लिया जाता है..बस पागलखाने का दरवाज़ा खटखटाने भर की देर है...

२. फ्री हास्य-मनोरंजन: यहाँ आया हर पागल दूसरे पागल से अपने पागलपन के अनुभव बाँटता है और पागलपने की बातें करके हल्का महसूस करता है...चूँकि हर इन्सान या पागल में अपनी एक विशेषता होती है..तो इसी बात को नजर में रखते हुये पागलखाने वालों ने सभी पागलों की पागलपन की प्रतिभा को और भी निखारने का या प्रोत्साहन देने का निश्चय करके एक प्रोग्राम आयोजित करने का निश्चय किया/लिया है..उसके लिये हर पागल को किसी भी पागलपन की रचना लिखकर लाने की छूट है..मतलब ये कि पागल तो पागल साथ में उसकी पागलपने की रचनाओं का भी दिल खोल कर स्वागत होगा...

३. आप मित्रों के साथ मजाक या मस्ती यहाँ कर सकते हैं..लेकिन इस बात का ख्याल रखते हुये कि किसी को ठेस न पहुँचे..या वे ही मित्र शामिल हों जो मजाक-मस्ती पसंद करते हैं और बुरा नहीं मानते हैं..अगर आप इस टाइप के हैं तो आप खुशी-खुशी इसका फायदा उठायेंगे.. अन्य शब्दों में कहूँ तो लाभान्वित होंगे...गुड लक !

४. अपना पागलखाने का पता है: http://www.facebook.com/pagalkhaana" आप इस लिंक पर क्लिक करिये तो आप अपने को सीधे पागलखाना के अन्दर पायेंगे...

** पागलपन के लक्षण : वैसे तो पागलों की पहचान कई रूपों में होती है..किन्तु यहाँ पर कुछ नमूने ही पेश कर रही हूँ जैसे कि: यदि आपको प्रतीत होता है कि आपको चुरा कर मिठाई खाने की गंभीर लत पड़ गयी है ( जैसे कि जोगी उर्फ़ जोगेन्द्र ), या आपकी आदत दूसरों की बुराई या चुगली करने वाली बहुत है ( आपका सीक्रेट यानी राज, हम लोग यानी पागलखाने के कर्मचारी, किसी को नहीं बतायेंगे बस चुपचाप पागलखाने में जाकर दाखिल हो जाइये ), या हद से अधिक हँसते हैं हँसने वाली बातों पर ( जैसे कि मैं ), या पैसा बनाने के चक्कर में अपने '' नीम हकीम खतरेजान '' वाले चिकित्सालय को खोलने वाले पागल ( जैसे कि सरोज जी ), या किसी दूसरे पागल को सबसे बड़ा पागल क्यों कह दिया उस पर जेलस होने वाला पागल ( जैसे कि जोगी उर्फ़ जोगेन्द्र ) या पागल खाना खोलने वाला जो पागलों को प्यार करते हुये गाता है ' दिल है कि मानता ही नहीं ' या ' दिल तो पागल है ' टाइप वाले गाने ( जैसे कि प्रति जी ). हा हा हा हा...

आशा करती हूँ कि आप लोगों को मेरी कही हुई हर बात समझ में आ गई होगी..लेकिन यदि कन्फ्यूज़ हैं तो हमारे ' पागल बॉस ' से कान्टेक्ट कीजिये और अपने पागलपने के सवालों के जबाब बास के पागलपने के उत्तरों से पाइये...यदि उनकी बात भी समझ में ना आये तो आप अब और देर किये बिना पागलखाने पहुँच कर अन्य तमाम पागलों से मिलिये..शायद यही एक उपाय हो आपकी समझ में आने का.. .

आप सब फेसबुक के साथियों की शुभचिन्तक
- शन्नो

Sunday 27 June 2010

लालू के कारनामे : भाग 4

आज लालू जब स्कूल से वापस आये तो अपनी ही उधेड़बुन में थे...हाथ में एक साफ्टी पकड़े खाते हुये घर में घुसे जो टपाटप जमीन पर हाथ से पिघल कर गिर रही थी. दोपहर की गर्मी आज बर्दाश्त के बाहर थी, बाहर आँगन में जमीन बिलकुल तवे की तरह गर्म होकर तप रही थी और कुछ बंदर वहाँ उछल कूद कर रहे थे..लालू ने अपना बैग चारपाई पर पटका और अपनी मम्मी को आवाज़ लगायी जो कहीं नहीं दिख रही थी..वैसे तो उनकी मम्मी कुछ न कुछ करती ही रहती थी घर में..लेकिन आज खाना बनाकर कुछ देर पहले कमरे में जाकर आराम करने लगीं थीं..लालू की निगाह बाहर गयी और वहाँ उन्हें कुछ बंदर दिख गये. तो जल्दी से बंदरों को भगाने वाला एक लम्बा डंडा उठाया और बाहर गये जहाँ पर सूखते हुये कपड़ों को एक बंदरिया खींचने की कोशिश कर रही थी..बंदरिया लालू को देख नहीं पायी तो लालू ने चुपके से उस पर कस कर डंडा जमा दिया..बंदरिया लालू पर जोर से कुछ खौखियाई और फिर कपड़े जमीन पर छोड़ कर पड़ोसी की छत पर कूद कर भाग गयी. उसके पड़ोसी के छत पर कूदते ही किसी बिल्ली की जोर से म्याऊँ-म्याऊँ की दर्दनाक चीखें आईं..लालू ने झाँका तो वह बंदरिया वहाँ घूमती एक बिल्ली से उलझी हुई थी..लालू ने उन दोनों पर कुछ गिट्टियाँ फेंकीं और संतुष्ट होकर अन्दर वापस आ गये. घर में कहारिन जिसका नाम अनीता था बर्तन मांज रही थी उसने लालू को डांटा कि ऐसा करने से बंदरिया उन्हें काट भी सकती थी..तो लालू पलटे और अनीता पर चिल्लाने लगे.

लालू : '' मम्मी कहाँ है और ये रिया दीदी भी नहीं दिख रही है ? और तू अपना मुँह बंद रखा कर अनीता..मुझे पता है कि बंदरों को कैसे भगाया जाता है.''

अनीता: '' तुम्हारी मम्मी अन्दर है आराम कर रही है और रिया अपनी सहेली से मिलने उसके घर गयी है.''
( और मुँह में बुदबुदायी कि तुमसे बढ़ कर शैतान बन्दर और कहाँ हो सकता है. )

और फिर लालू जबाब पाकर बरामदे में पड़ी एक चारपाई पर जाकर लेट कर आराम फरमाने लगे. सीलिंग फैन भी आन कर लिया. अब उन्हें जोरों से प्यास लगने लगी.

लालू: '' अनीता तू उठकर मुझे एक गिलास पानी लाकर दे.''

अनीता: '' अरे लालू भैया इतने भी न आलसी बनो कि तुम एक गिलास पानी भी लेकर न पी पाओ..जाओ फ्रिज में से ठन्डे पानी की बोतलें हैं..जाकर खुद लेकर पी लो.''

लालू ने उसे आँखें दिखायीं कुछ मुँह में बड़बड़ाये और अनमने से उठकर किचन में जाकर पानी का गिलास भर लाये.
कुछ देर बाद अनीता ने काम ख़त्म कर लिया और अपने घर जाने लगी.

अनीता: '' लालू भैया जरा उठो और दरवाज़ा बंद कर लो अन्दर से..मैं अब जा रही हूँ.''

लालू उठकर दरवाज़ा बंद करने गये उसी समय बाहर एक भिखारी जा रहा था. दरवाज़ा खुला देखा और लालू को भी तो कुछ उम्मीद के साथ आगे आया और पैसे मांगने लगा...लालू ने उसे डांट कर भगाने की कोशिश की लेकिन वो नहीं टला और अड़ा रहा वहाँ तो लालू को गुस्सा आ गया.

भिखारी : '' बेटा अपनी माँ को बुला दो..कुछ पैसे दे दो भगवान के नाम पर वो तुम्हारा भला करेगा.''

लालू: '' चल जा अपनी रास्ता नाप..सारा दिन मुफ्त में कमाई करता फिरता फिर भी कोई घर नहीं छोड़ता.. जा आगे बढ़.''

भिखारी: '' बेटा आपकी खूब लम्बी उम्र हो आप बड़े होकर बहुत बड़े इंसान बनो..भगवान तुम्हें खूब बरक्कत देगा.''

लालू: '' अच्छा ठहरो जरा यहीं मैं अभी आता हूँ. ऐसे तो तुम जाओगे नहीं.''

और अन्दर कमरे में जाकर कुछ लाने गये तो इतनी देर में रिया भी आ गयी.

रिया: '' ठहरो बाबा मैं तुम्हारे लिये अभी कुछ लायी.''

रिया भी अंदर गयी और इधर लालू वापस एक कपड़े में कुछ छुपा कर हाथ में लेकर आये. भिखारी का चेहरा उम्मीद से चमक उठा.

लालू: '' तुम अब यहाँ से चुपचाप खिसकोगे कि नहीं या फिर कोई और इंतजाम किया जाये ?''

भिखारी: ' आप जो कुछ भी लाये हो वो लेकर मैं चुपचाप चला जाऊँगा.''

लालू: '' उसके बाद तो कभी यहाँ वापस नहीं आओगे.''

भिखारी: '' जैसा आप कहें हुजूर.''

लालू: '' तो पलट कर दूसरी तरफ देखो.''

भिखारी खड़ा होकर पलटा और लालू ने कपड़े में छुपाया खिलौने वाला तमंचा उसकी पीठ पर सटा दिया.

लालू: '' अब जायेगा की नहीं यहाँ से या इसे चलाऊँ.''

भिखारी: '' अरे हुजूर, इसे ना चलाना मैं चला जाता हूँ..अब कभी नहीं आऊँगा... जाता हूँ.''

भिखारी उस तमंचे को असली वाला समझ कर घबरा गया और सर पर पैर रख कर भागा वहाँ से...

उसके जाने के बाद लालू दरवाज़ा बंद करके अंदर आ गये. इतने में रिया कुछ पैसे लेकर आई.

रिया: '' लालू वह भिखारी इतनी जल्दी कहाँ चला गया ? ''

लालू: '' हा हा..मैंने उसे भगा दिया दीदी.''

रिया: '' कुछ पैसे दे दिये ना उसे ? ''

लालू: '' अगर मैं उसे पैसे देता तो फिर वह अक्सर यहाँ आता तो मैंने उसे नकली तमंचा इस्तेमाल करके भगा दिया..हा हा हा हा ''

रिया: '' तूने ये अच्छा नहीं किया अगर मम्मी को पता लगेगा तो वह बोलेंगी कि किसी की बद्दुआ लेने से तो अच्छा है कुछ दे दिया जाये.''

लालू: '' अरे दीदी, अब वह इधर का रास्ता भूल जायेगा..घर-घर जाकर ठगते हैं ये लोग. कोई काम नहीं करते तुम्हें क्या पता कि कितना पैसा इकट्ठा कर लिया हो इसने..हा हा हा हा...तुम चिंता न करो.''

और फिर लालू अपनी मम्मी को आवाज़ लगाते हुये अंदर भाग गये...

लालू के कारनामे : भाग 3

गर्मी का मौसम, मच्छरों की भुनभुनाहट और उमस के मारे बेचैनी...लालू को बड़ी मुश्किल से नींद आई थी...जब तक जागते थे तब तक उनका दिमाग खाली नहीं रहता था..बस खेल-कूद व किसी न किसी को तंग करने के प्लान बनाया करते थे..घर में कुछ लोग कमरों में व कुछ लोग बरामदे में सोये हुये थे...और लालू उस दिन बरामदे में लगे एक बिस्तर पर सोये थे...बिजली चले जाने से सबका गर्मी और उमस के मारे बहुत बुरा हाल था...और मच्छरों के उत्पात से लालू की नींद टूट गयी..आधी रात का समय था...लालू ने टटोल कर पास की टेबल से टार्च उठाई और उसकी रोशनी में उठे...जाकर पानी पिया फिर बाथरूम गये और धीरे से वापस आकर फिर सोने के लिये बिस्तर पर लेट गये.

लेकिन आँखों में नींद कहाँ...तो दिमाग कुछ खुराफाती बातें सोचने लगा...और अचानक बिजली की तरह दिमाग में एक आइडिया कौंध गया की चलो रिया को कुछ सबक सिखाया जाये..तो जल्दी से बिना कुछ आहट किये हुये उठ गये और इधर-उधर टार्च की रोशनी में देखा तो एक कोने में एक बड़ी मकड़ी चिपकी हुई दिख गयी...लालू ने उसे अपनी चप्पल से पटक कर मारा फिर उठाकर उसे रिया की तकिया के नीचे जाकर रख दिया..और चैन से जाकर चुपचाप सो गये...उनके मन में कुछ ठंडक सी पड़ गयी थी.

भोर हुयी...घर में सब लोग उठने लगे..लेकिन रिया और लालू जरा अधिक आलसी थे..दोनों को देर तक सोने की आदत थी..जब तक उनकी मम्मी उन पर बुरी तरह झींकती नहीं थीं जोर से तब तक वह दोनों जल्दी उठने का नाम नहीं लेते थे.. उनकी मम्मी यही मनाया करतीं थीं की स्कूल की छुट्टियाँ कब जल्दी से ख़तम हों तो कम से कम सारा दिन तो लालू की खुराफातें ना झेलनी पड़ें...लालू ने सोते हुये अंगडाई ली....उनकी मम्मी सबको उठाने लगी तो लालू ने आँखें खोलीं लेकिन फिर कुनमुना कर चादर तान कर दोबारा सो गये...मम्मी वहाँ से चली गयी...फिर रिया कुछ भुनभुना कर उठी और बिस्तर को तह करके रखने लगी तो तकिया उठाते ही उसके नीचे उसे एक बड़ी सी काली मकड़ी दिखी तो उसके मुँह से जोर की चीख निकल गयी..लालू ने एक आँख खोल कर रिया को देखा..खिलखिलाये धीरे से..और फिर सोने का बहाना करके चेहरा ढँक लिया...रिया तुरंत ताड़ गयी और जाकर उसने लालू के कान उमेठे.

रिया: लालू तू कब अपनी करतूतों से बाज आयेगा...क्यों सताता रहता है सबको. अभी जाकर मैं मम्मी को बुला कर लाती हूँ और दिखाती हूँ की आज तूने क्या किया...अगर मकड़ी मुझे काट लेती और मैं मर जाती तो तुझे पाप लगता.

लालू: हे हे हे हे...पाप मुझे क्यों लगता..मकड़ी काटती तो उसे पाप लगता..और फिर वो मकड़ी तो तुम्हें तुम्हारी तकिया के नीचे मरी दिखी तो फिर पाप तो असल में तुम्हें लगना चाहिये...मुझे नहीं.

रिया: लेकिन रखी तो तूने ही थी ना ? मर गयी तो अच्छा हुआ तकिये के नीचे..वर्ना मुझे काट लेती तो जहर चढ़ जाता और मैं मर भी सकती थी.

लालू: अरे, तुम भी ना दीदी विला वजह के डर जाती हो...वो तो मैंने तकिये के नीचे रखने के पहले ही मार दी थी..तो काटने का सवाल ही पैदा नहीं होता...हे हे हे हे.

रिया: फिर भी मैं अभी मम्मी से जाकर कहती हूँ की तुमने ये कितनी घिनौनी हरकत की है...आज तुम नहीं बचोगे...पिछली बार की तेरी हरकत का मैंने कोई बदला नहीं लिया लेकिन तू नहीं सुधरने वाला.

और रिया गुस्से में बड़बडाती अपनी मम्मी को बुलाने चली गयी इतनी देर में लालू ने वह मकड़ी उठा कर खिड़की के बाहर फेंक दी...और बिचार करने लगे की अपने को आज कैसे बचाया जाये...फिर जैसा की अक्सर या हमेशा ही होता रहता है...लालू के दिमाग ने पलटा खाया और एक आइडिया आया..चुपचाप अपना चेहरा ढककर काँखने लगे.

इतनी देर में उनकी मम्मी आ गयी...और साथ में रिया भी अपने चेहरे पर एक विजयी मुस्कान लिये हुये.

मम्मी: क्यों रे ललुआ...ये क्या करता रहता है..क्यों नहीं रिया को चैन से जीने देता...कुछ तो सोच वो तेरे से बड़ी है...कब अकल आयेगी तुझे...और ऊपर से अब तक सो रहा है...कभी समय से नहीं उठता..चल अब उठ...देख कितना दिन चढ़ आया है और तेरी नींद अब तक नहीं पूरी हुई.

लालू ने और जोर से काँखना शुरू कर दिया..मम्मी ने सुना तो कुछ चिंता हुई.

मम्मी: क्यों..ये काँख क्यों रहा है..क्या हुआ..तबियत तो ठीक है ना..देखूँ कहीं बुखार तो नहीं है.
और लालू के माथे पर हाथ रखकर देखा तो उनका टेम्परेचर सही महसूस हुआ उनकी मम्मी को.

मम्मी: बुखार तो नहीं है तो काँख क्यों रहा है रे ?

रिया: मम्मी तुम इससे पूछो ना की इसने वो मकड़ी क्यों मेरी तकिया के नीचे रखी..देखो मैं दिखाती हूँ.

लेकिन वो मकड़ी वहाँ नहीं थी तो मिलने का सवाल ही नहीं था.

रिया: लेकिन मम्मी वो तो यहीं इसी तकिये के नीचे थी..फिर कहाँ चली गयी ?

मम्मी: ललुआ क्या तूने कोई मकड़ी रखी थी तकिया के नीचे..बोलता क्यों नहीं.

लालू: नहीं मम्मी मैंने कुछ भी नहीं रखा था वहाँ..मैं तो उठा था अपने बिस्तर से तो दीदी की चारपाई से टकरा गया था...इसके सर पर मेरा हाथ लग गया....तो इसने मेरे पेट में खींच कर जोर से मुक्का मारा..मैंने तुमसे जाकर शिकायत नहीं की.. केवल इसलिए की कहीं इसकी डांट न पड़े...मम्मी मेरा पेट अब और भी दुख रहा है.

रिया तो जैसे भौंचक्की रह गयी लालू के तेज दिमाग के बारे में सोचकर..उसे बिश्वास ही नहीं हुआ अपने कानों पर...और अचानक उसकी समझ में नहीं आया की अब वोह उसके आगे क्या कहे...ऊपर से मम्मी ने एक डांट की घुट्टी पिलाई वो अलग.

मम्मी: रिया तुझे बड़ी होकर भी अकल नहीं है की ये तेरा छोटा भाई है..अरे सर पे हाथ ही तो लग गया था..कोई पहाड़ तो नहीं टकराया था की उसके पेट में घूँसा मार दिया..वो भी इतने जोर से की वह अब तक बिलबिला रहा है...चल जा तू किचन में जाकर कुछ काम संभाल और मैं ललुआ को देखती हूँ.

और मम्मी लालू के पास बैठकर उनका सर सहलाने लगी और चुम्मियां लीं..जिसे देख कर वहाँ खड़ी हुई रिया का खून खौल गया. और लाचार सी हो गयी की क्या सफाई दे झूठे लालू की दलीलों पर.

लालू: मम्मी..मम्मी..रिया दीदी पर चिल्लाओ ना अब.

लेकिन फिर मम्मी की निगाह बचाकर रिया को जीभ निकाल कर दिखाई..और रिया किलस कर रह गयी और अपनी मम्मी के कहने पर किचन में काम करने चली गयी...और लालू मुस्कुराके फिर काँखने में लग गये...

लालू के कारनामे : भाग २

वैसे तो लालू का जीवन बहुत मस्त और घरवालों के लाड़-प्यार में बीत रहा है..किन्तु अक्सर उनके वहमी मन में कुछ बातें कचोटती रहती है..और उनका चित्त अस्थिर हो जाता है..पाठकों की जिज्ञासा दूर करने के लिये उचित होगा की उस राज को बता ही दूं...ताकि आप लोग लालू के कभी-कभी झींकने या उदासी के कारन के पीछे क्या वजह है उसे जान सकें.

बात यह है की लालू सोचते रहते हैं की उनके घर में सब लोग गोरे हैं और उनका रंग क्यों काला है..जिस पर पता नहीं कितनी ही बार अपनी मम्मी से पूछ चुके हैं..और उनके कितनी ही बार बताने पर भी लल्लू के मन को तसल्ली नहीं मिलती..इसी लिये वह कभी-कभी काले रंग की चीजों को..जैसे की उनमे कुत्ते-बिल्ली भी शामिल हैं, उन्हें उठा कर घर ले आते हैं.

और लालू अपने चार बहन भाइयों में सबसे छोटे हैं..तो नंबर चार पर आते हैं..मतलब यह की दो भाई और एक बहन उनसे बड़े हैं..जो उन पर अपना रुआब गांठने में लगे रहते हैं और लालू को यह सब बड़ा नागवार लगता रहता है..लेकिन क्या करें..जब लालू शरारत करते हैं और सबकी डांट खाते हैं...तो बाद में लालू को अकेले पाकर दोनों भाई और बहन मिलकर चिढ़ाते हैं की वह सब गोरे हैं..और केवल लालू ही काले हैं..इसीलिए लालू भी अपने भाई-बहन से खीझे रहते हैं और हमेशा बदला लेने की फ़िराक में लगे रहते हैं.

एक दिन लालू किसी की लावारिस भटकती हुई बिल्ली सड़क पर से उठा लाये जो काले रंग की थी और लाकर अपनी बहन रिया के बिस्तर पर रख दिया..जब वह कमरे में आई तो बिल्ली को अपने बिस्तर पर देख कर जोर से चीखी..

रिया : '' लल्लू तू अपनी हरकतों से बाज नहीं आने वाला..क्यों..? मैं अभी मम्मी को बुलाती हूँ और तेरी मरम्मत करवाती हूँ..आज तू एक कमबख्त बिल्ली को भी ले आया घर में..इसकी देखभाल कौन करेगा.''

लालू : '' बड़ी आई मरम्मत लगवाने वाली..पहले अपना चेहरा देख जाकर शीशे में. ''

रिया : '' तू जल्दी से इस बिल्ली को बाहर सड़क पर छोड़ आ..वर्ना फिर... ''

लालू : '' वर्ना क्या..क्या कर लेगी तू या मम्मी मेरा..हा हा..मैं रोने लगूँगा और कहूँगा की..रिया दीदी ने मुझे मारा था..हा हा हा हा... ''

रिया : '' नालायक कहीं का..तू अपनी हरकतों से सबको दुखी करता रहता है. ''

लालू : '' हा हा हा..तुम बक-बक करो..और मैं बिल्ली के लिये किचन से दूध लेकर आता हूँ..अगर मेरी बिल्ली को हाथ लगाया तो अच्छी बात नहीं होगी. ''

और लालू च्युंगम मुंह में चबाते हुये दूध लेने गये..इतनी देर में रिया ने मौका देखकर बिल्ली को उठाया और धीरे से दरवाज़ा खोलकर उसे भगा दिया..अच्छा हुआ की बिल्ली ने शोर नहीं किया...

किचन में जाकर बोले '' मम्मी एक कटोरे में दूध दे दो..पीना है. ''

मम्मी बोली : '' कटोरे में दूध पियेगा रे..ले गिलास में देती हूँ पीने को तुझे. ''

लल्लू : '' नहीं गिलास से जल्दी नहीं पी पाऊँगा..मुझे कटोरे में ही चाहिये. ''

मम्मी : '' चलो ठीक है..जिद्दी तो तू है ही..ले कटोरे में ही ले जा. ''

लालू दूध का कटोरा लेकर गुनगुनाते हुए वापस आये अपने कमरे में..'' बिल्ली रानी दूध पियेगी..पीकर फिर इतरायेगी..रिया दीदी डांटेंगी तो उसको आँख दिखायेगी ''...ला ल ला ल ला ला....

लेकिन कमरे में पहुँचते ही पता लगा की न तो बिल्ली थी वहाँ ना ही रिया..तो पहले तो बिस्तर, अपनी टेबल और कुर्सी के नीचे ढूँढा..फिर इधर-उधर देख आये..पर कहीं पता नहीं लगा..लालू अपने चालू दिमाग से समझ गये की जरूर यह रिया की ही हरकत है..की बिल्ली को वोह बाहर छोड़ आई होगी..मन ही मन में लालू गुस्से से कुलबुला गये और आव देखा न ताव..बहन के कमरे में गये और देखा की वह पढ़ रही थी..लालू को देख कर उसने मुँह बनाया तो लालू और छटपटा गये...और अपने मुँह से च्युंगम निकाल कर उसके बालों को खींचा और उसमे चिपका दिया कस के..रिया चीखी जोर से मम्मी को आवाज़ लगाते हुये. इतनी देर में लालू ने दूध का कटोरा अपने ऊपर पलट लिया..और रोने लगे.

रिया : '' मम्मी देखो, लल्लू ने मेरे बालों को ख़राब कर दिया है.''

मम्मी दौड़ती हुई आई.

मम्मी : '' क्यों रे रिया के बालों में ये च्युंगम क्यों लगाया रे. छुट्टी के दिनों हर समय शैतानी करता रहता है. ''

लालू : '' क्योंकि पहले इसने मेरे हाथ से दूध का कटोरा लेकर मुझपर उंडेल दिया था इसलिए मैंने च्युंगम लगा दिया इसके बालों में. ''

रिया : '' नहीं मम्मी इसने ही दूध को डाला है अपने ऊपर..मैंने कुछ भी नहीं किया था..यह एक बिल्ली लाया था और मेरे बिस्तर पर लाकर बिठा दिया था उसे..तो बस मैंने इसे डांट दिया था.''

लालू : '' मम्मी मैं कोई बिल्ली-उल्ली नहीं लाया था..ये झूंठ बोल रही है..तुम खुद देखो जाकर घर में कहीं भी बिल्ली नहीं है. ''

और फिर रोने लगे..रिया अपना सा मुँह लेकर रह गयी..क्योंकि जब मम्मी ने ढूँढा बिल्ली को तो वह कहीं भी नहीं दिखी घर में..और रिया को लालू पर दूध पलटने के लिये नाराज़ होकर बड़ा सा लेक्चर दिया.

फिर उसके बाद उनकी मम्मी ने लालू के कपड़े बदल कर पुचकार कर उन्हें चुप किया..लेकिन उन्होंने ये बिलकुल गौर नहीं किया की जब-जब लालू अपनी आँखें पूंछते थे रोने का नाटक करते हुये तो..वोह मम्मी के पास आने के पहले ही जल्दी से नाक साफ़ करने के बहाने जाकर पानी से अपनी पलकें और गाल भिगो आये थे..खैर, अब साफ़-सफाई और माँ का पक्ष और प्यार पाकर माँ के कहने पर लालू एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह पढ़ने का बहाना कर के वहाँ से खिसक लिये..और जाते-जाते अपनी बहन को एक विकट मुस्कान छोड़ते गये.

और रिया मन में जल-भुन कर खाक हो गयी..और लालू से अगली बार बदला लेने का प्लान बनाने लगी...