Friday 13 January 2012

मकर-संक्रांति की यादें और पतंगें

खुला मौसम गगन नीला

धरा का तन गीला- गीला l


पतंगों की उन्मुक्त उड़ान

तरु-पल्लव में है मुस्कान l


मकर-संक्रांति को भारत के हर प्रांत में अलग-अलग नामों से जाना जाता है. और वहाँ के वासी अलग-अलग तरीके से इस त्योहार को मनाते हैं. पंजाब में इसे लोहड़ी बोलते हैं जो मकर-संक्राति के एक दिन पहले की शाम को मनायी जाती है. और उत्तरप्रदेश में, जहाँ से मैं आती हूँ, इसे मकर-संक्रांति ही बोलते हैं. लोग सुबह तड़के स्नान करते हैं ठंडे पानी में. और इस दिन को खिचड़ी दिवस के रूप में मनाते हैं. यानि घर की औरतें एक थाली में उड़द की काली दाल, नये चावल, नमक, मिर्च, गुड़, घी व कुछ रूपया-पैसा रखती हैं और घर के आदमी लोग पुन्य प्राप्त करने हेतु उसे हाथ से छूते हैं, फिर उसे ब्राह्मणों को देते हैं.


बचपन की यादें भी क्या अजीब चीज होती हैं. कितनी अटरम-सटरम बातें याद आती रहती हैं. अक्सर उनकी भीड़ लग जाती है. आज फिर मकर-संक्रांति के अवसर पर वो यादें तरो-ताज़ा हो आईं. खिचड़ी और पतंगों का मनभावन त्योहार. लड़की होने के कारण पतंग उड़ाने की हसरत मन में ही रखते थे. कितनी सादगी भरा था वो बचपन. मूंगफली, लइया और चने झोली में रखकर खेलते हुये इधर-उधर गिराते हुये खाया करते थे. किसे परवाह थी स्टाइल और दिखावे की. मन भर कर कूदे-फांदे, कोई नाराज हुआ तो हो ले...कोई कान खींचे तो खींचने दो, कोई झुंझलाये तो झुंझलाने दो...थोड़ी देर बाद रो-मचल कर हम नार्मल हो जाते थे. माँ चिल्लाती रहती थी और हम कभी अधिक नोटिस नहीं करते थे कि उन्हें वैसा करने से रोकते. घर में ऊँची आवाज में बोलना...सारा दिन किसी न किसी बात पर चीख-पुकार सब नार्मल बातें थीं...

अर्रर्रर्र कहाँ से कहाँ पहुँच गयी मैं.


तो इस दिन केवल काले उड़द की दाल की खिचड़ी ही खाने में बनती है. आज फिर जैसे बचपन की यादों के टुकड़े बिखर कर पतंग की तरह उड़ने लगे हैं. कल्पना में अपने को मायके के बड़े से आँगन में देख रही हूँ. और वहाँ बिछी हुई गुनगुनी धूप में चारपाई पर थाली रखकर वो गरमागरम खिचड़ी (जिसमें अम्मा अपने प्यार के साथ-साथ ढेर सा देशी घी उंडेल देती थीं) धनिये की चटनी, अचार, मूली, दही और आलू के भर्ता के संग खाते हुये देख रही हूँ.


और यही मौसम रेवड़ी, गजक का भी होता है जिनका आनंद भरपूर लिया जाता है. गन्ने के रस की बहार का क्या कहना. ताज़ा रस आता था कोल्हू से निकल कर और उसे ठंडा-ठंडा पीते थे व माँ उसमें चावल डाल कर मीठी खीर भी बनाती थीं जिसे हम रसाउर बोलते थे. उसे वैसे ही खाया जाता है. लेकिन चाहो तो उसमे दूध अलग से अपनी श्रद्धानुसार डाला जा सकता है.


और फिर बारी आती थी पतंगों की. इस दिन पतंग बेचने वालों के यहाँ भीड़ लगी रहती थी...तरह-तरह के रंग और आकार की पतंगें, चरखी और मंझा...खूब बिक्री करते थे बेचने वाले. छोटे बच्चे छोटी व बड़े बच्चे बड़ी पतंगें पहले से ही इस दिन के लिये खरीद कर रखते थे और फट जाने पर जल्दी से और खरीद कर ले आते थे. बड़े जोर-शोर से कुछ दिन पहले से ही पतंगें उड़ाने की तैयारी होती थी. और छत पर जाकर खुले-खुले नीले आसमान के नीचे कुछ सिहरन देती हवा में पतंगें उड़ाते थे. चारों तरफ पतंगें ही पतंगें..जैसे रंग-बिरंगे रूमाल उड़ रहे हों. फिर कभी आपस में लड़ना, नाराजी में दूसरे की पतंग फाड़कर कलेजे को ठंड पहुँचाना, आँसू बहाना, मचल जाना इत्यादि तमाम कुछ होता था.


बड़े भाइयों के आदेश पर मंझा और चरखी पकड़ कर उनके पीछे-पीछे चलना, पतंग को पकड़ कर दूर किनारे पर जाकर उसे ऊपर हवा में छोड़ना, कोई गलती हो जाने पर उनकी डांट खाना और वहाँ से भगा दिये जाना. लेकिन फिर कुछ देर के बाद चैन ना पड़ने पर बेशरम की तरह फिर जाकर जिद करना कि हमें भी पतंग उड़ाने दो. लेकिन लड़की होने के कारण और उन भाइयों से छोटे होने के कारण हमारी दाल नहीं गलती थी. यानि हमको बड़ी क्रूरता से फटकार दिया जाता था ‘चल हट...तुझे पतंग उड़ाना आता भी है’ तो हमारी उमंगों पर पानी फिर जाता था और हम मुँह लटकाकर अपनी हसरत मन में दबाकर उन सबको पतंग उड़ाते हुये देखते रहते थे. लेकिन भाग-दौड़ के कामों में हमारा फुल उपयोग होता था. जैसे किसी और की पतंग काटने को उन्हें उत्साहित करना और कभी कोई पतंग पड़ोस की छत पर गिरी तो ‘जा पड़ोसी के छत पर पड़ी पतंग जल्दी से उठा ला’ या 'उस पपीते व अमरुद के पेड़ में फँसी हुई वो पतंग मुंडेर पर चढ़कर निकाल कर ले आ’ या ‘दूर वाले की पतंग उलझ गयी है और अपनी छत पर नीचे झुक रही है...तोड़ इसे..काट इसे’ आदि के शोर में शामिल होना. और उससे पहले ही यदि किसी और ने वहाँ पहुँचकर वो पतंग लपक कर उठा ली तो अपना सा मुँह लेकर हम वापस आ जाते थे. दिन डूबने तक आसमान को छूती हुई लहराती पतंगों में होड़ सी रहती थी कि किसकी पतंग खूब ऊँची और देर तक उड़ती है.


शाम तक पतंगों की रौनक रहती थी फिर सब लोग अपनी चरखी-मंझा समेटकर छत से नीचे आ जाते थे. और हम रात में सोने पर सपनों में चैन से उन पतंगों को उड़ाने की हसरत पूरी करते थे.


जल्दी में क्रिसमस की शुभकामनायें

क्रिसमस का त्योहार 25 दिसंबर को मनाया जाता है और उसके लिये तो अभी करीब एक महीना बाकी है. लेकिन यहाँ इंग्लैंड में क्रिसमस का वातावरण शौपिंग एरिया व दुकानों में देखते ही बनता है...तरह-तरह की चाकलेट, बिस्किट, केक, पुडिंग, फल, मेवा और सजावट की चीजें मार्केट में आ गयी हैं. हर जगह बड़ी रौनक है और जगह-जगह म्यूजिक चलता रहता है. लोगों की भीड़ से मार्केट सुबह से शाम तक पटे रहते हैं. बड़े-बड़े सुपरमार्केट रात देर तक..यानि 9-10 बजे तक खुले रहते हैं. लेकिन खरीदने वालों की भीड़ फिर भी कम नहीं होती. सुपरमार्केट के फ्रीजर तरह-तरह की आइसक्रीम, स्वीट डिशेस व पार्टी की स्वादिष्ट चीज़ों से और भी भरने लगे हैं. कपड़े-लत्ते व जेवर खूब बिक रहे हैं व दुकानों में माल लबालब भरा हुआ है. महंगाई का मुँह यहाँ भी बढ़ता जाता है फिर भी फैशनेबिल उपहार व कपड़ों को खरीदने का लोगों में पागलपन और बढ़ गया है. इनमे से न जाने कितने आइटम तो क्रिसमस के बाद पसंद ना आने का कारण बता कर दुकानों को लौटाये जायेंगे व कितने ही गिफ्ट्स charity में जरूरतमंद लोगों को दे दिये जायेंगे.


और क्रिसमस के दिन कितने ही ब्रिटिश लोग अपना traditional टर्की का डिनर पसंद न करके इटैलियन व चिकन टिक्का मसाला आदि खा रहे होंगे. आप सबको भी शायद पता होगा कि अब ब्रिटिश लोगों का ये फेवरेट फूड है. कुछ आलसी लोग या जो पार्टी के मूड वाले हैं वो घर पर खाना न बनाने की बजाय रेस्टोरेंट में जाकर खायेंगे. और तमाम ब्रिटिश लोग तो इस समय छुट्टियाँ कहीं गरम जलवायु वाले देशों में जैसे इटली व स्पेन में जाकर गुजारना पसंद करेंगे. कुछ लोग तो अब इस त्योहार से ऊबे-ऊबे से लगते हैं और कुछ लोग बच्चों की खातिर मनाते हैं. फिर भी इस दिन की लोग सभी बड़ी उत्सुकता से बाट जोहते हैं. और तो और अब इस उत्सव का आनंद लेने के लिये भारतीय भी पीछे नहीं रहते. इस अवसर पर दीवाली की तरह रोशनी की सजावट व क्रिसमस ट्री घरों में लगाकर रंग-बिरंगी चीजों से सजाते हैं. बाहर-भीतर लाइट की भरमार होती है और देखने काबिल होती है. और शाम को सड़कों पर कई जगह बिजली की खूबसूरत सजावट से बड़ी चहल-पहल रहती है. सेन्ट्रल लंदन में आक्सफोर्ड स्ट्रीट, रीजेंट स्ट्रीट व पिकडिली सर्कस नाम की जगहों में रोशनी की वो सजावट होती है कि दूर-दूर से लोग देखने आते हैं और टूरिस्ट लोगों की भीड़ लगी रहती है. रात तो दुल्हन की तरह दिखती है और शहर जैसे सोता ही नहीं.

एक दूसरे के त्योहार को देखने व उसमे भाग लेने में कितना मजा आता है..है न ? :)

स्थानापन्न मातृत्व (Surrogacy)

जब एक औरत के मन में माँ बनने की तीव्र इच्छा उठती है और वह बदकिस्मती से पूरी न हो पाये तो समय के साथ-साथ वह अहसास एक असहनीय आंतरिक पीड़ा का रूप ले लेता है. उस तड़प को केवल वही पति-पत्नी जानते हैं जो इस राह से गुजरे हों. और इस पर आप यह भी कह सकते हैं कि वो लोग किसी और के बच्चे को गोद क्यों नहीं ले लेते...तो उस दशा में भी काफी दिक्कतें आती रही हैं. विदेशों के लोग भारत भी जाकर बच्चों को गोद लेने की कोशिश करते हैं. तो कई बार लोगों की उम्र, रहने की परिस्थितियाँ, किसी का स्वास्थ्य, या विभिन्न जाति के पति पत्नी होने से समस्यायें आ जाती हैं.


उस स्थिति में आज की दुनिया में कुछ लोग माँ-बाप बनने का सपना किसी और का गर्भाशय उधार लेकर पूरा कर रहे हैं. उन्हें सरोगेसी ही उनके सपने पूरे होने का जरिया नजर आती है. और इस मुद्दे पर लोग अपने अलग-अलग बिचार प्रकट कर रहे हैं. किन्तु जो संतान के अभाव की पीड़ा को सहन कर रहे हैं वो किसी भी हद तक जाकर आसमां से सितारे तोड़ कर लाने का ख्वाब रखते हैं और कोशिश करने पर कुछ लोगों के ऐसे सपने पूरे भी हो रहे हैं. पति के स्पर्म (बीज) से पत्नी की ओवरी (अंडाशय से) अंडा निकालकर fertilise (गर्भाधान) करके किसी और औरत के गर्भाशय में डालकर संतान पैदा होती है. और कई ऐसे भी केस हो रहे हैं जहाँ पत्नी के अंडाशय में अंडा ही नहीं पैदा होता तो उस दशा में किसी से दान लिया हुआ अंडा इस्तेमाल किया जाता है.


अमेरिका और इंग्लैंड में तो ऐसे भी किस्से हो रहे हैं जहाँ कुछ औरतें अपनी सहेली की मनोदशा व असहायता को देख नहीं पायीं और उन्होंने अपना गर्भाशय उधार देकर उनके बच्चों को जन्म दिया. इस तरह का कार्य करके उन्हें शर्मिंदगी नहीं बल्कि गर्व महसूस हुआ कि वो किसी के काम आ सकीं.


और कुछ औरते आजकल केवल अपनी आर्थिक दशा सुधारने के उद्देश्य से सरोगेट माँ बनने को तैयार हो रही हैं. और इस तरह के उदाहरण अब पश्चिमी भारत में भी बहुत पाये जा रहे हैं जहाँ गरीब घरों की औरतें रिश्तेदारों की आपत्ति के वावजूद भी अपना घरबार, पति व बच्चों से सैकड़ों मील दूर जाकर एक क्लिनिक की तरफ से इंतजाम किये हुये घरों में रहकर किसी और के बच्चे को जन्म देती हैं. क्लिनिक उन औरतों के गर्भवती हो जाने पर उनका रहने और खाने का इंतजाम उन खास घरों में करती है. वो लोग अपने पति व बच्चों से दूर अपनी ही तरह की बच्चों को जन्म देने की प्रतीक्षित औरतों के ग्रुप में रहती हैं. और वहाँ सभी मेडिकल सुविधाओं के बीच बच्चे को जन्म देती हैं. और फिर जिनका बच्चा उनकी कोख में था उनको वो सौंप दिया जाता है.


विदेशी लोग इस काम के लिये क्लिनिक को जो पैसा देते हैं उसका करीब एक तिहाई हिस्सा यानि करीब £5000 बच्चे के सुरक्षित पैदा होने पर उस औरत को मिलते हैं. और हर महीने उनके खाने, फल व दवाइयों के नाम पर आकांछित माता-पिता उस औरत के लिये करीब £28 यानि करीब 2,000 रुपये अलग से देते हैं. कई औरतें उस पैसे से अपना घर बना रही हैं और परिवार की जिंदगी सुधार कर गर्वान्वित हैं कि वो किसी के काम तो आ ही रही हैं साथ में अपने घर की आर्थिक स्थिति सुधार कर अपने बच्चों की अच्छी और ऊँची शिक्षा का भी इंतजाम करके उनका भविष्य भी बना रही हैं. यहाँ उम्र और जाति का कोई सवाल नहीं उठता दिखता है. वो कहते हैं ना कि Beggars can’t be choosers…और दोनों ही पक्षों का भला हो जाता है. किसी की संतान की चाहत पूरी हो जाती है और किसी को अपनी जिंदगी की जरूरतों के लिये पैसे मिल जाते हैं. पैसे कमाने के बिचार से कुछ औरतें तो एक बार किसी के बच्चे को जन्म देकर फिर से दोबारा इच्छुक रहती हैं दूसरे बच्चे को जन्म देने के लिये भी.


शायद आप सोचते होंगे कि जिसने बच्चे को जन्म दिया है वो शायद जन्म देकर उसे सौंपने से मुकर जाये तो उन औरतों के सोचने का नजरिया ही फर्क हो जाता है. उनका सोचना है कि ये काम किसी के भले के लिये व अपने लिये पैसा कमाने को कर रही हैं और उनकी कोख में पलने वाला बच्चा उनका नहीं बल्कि किसी और का है...केवल अपना गर्भाशय उधार दे रही हैं. वो अपने को उस बच्चे के प्रति मातृत्व की भावनाओं से दूर रखती हैं यह सोचकर कि उनकी कोख में पलता हुआ बच्चा किसी और का है उनका नहीं क्योंकि उनका परिवार तो उनके वो बच्चे हैं जो घर पर उसका इंतज़ार कर रहे हैं. सुनने में आता है कि इस तरह जन्म देने वाली औरतों की अब कमी नहीं है भारत में...तमाम औरतें गरीबी व अशिक्षा के कारण इसे ही कमाई का जरिया समझने लगी हैं और इनकी अब क्लिनिक में लाइन लग रही है. कोई इस मुद्दे पर सहमत हो या ना हो पर क्लिनिक को इस तरह की औरतों पर नाज है जो ना केवल दूसरों के संतान पाने के सपने पूरे करती हैं बल्कि ऐसा करने से अपनी गरीबी दूर करने के सपने को भी पूरा कर पाती हैं...और उन्हें खुद पर बहुत गर्व होता है.


अब एक सवाल उठता है कि इस तरह के बच्चों को बड़े होकर जब उनके जन्म की कहानी उनके माता-पिता सुनायेंगे तो उनपर क्या प्रतिक्रिया होगी. किसी में अपने माँ-बाप दोनों का अंश होगा तो किसी में एक का...पर जिसने उसे अपनी कोख से जन्म दिया है क्या उसके बारे में भी वो जानना चाहेगा या उसे देखना चाहेगा और किस तरह के भाव आयेंगे उसके मन में ?


शायद आप सब के मन में भी यही बिचार छेड़खानी कर रहे होंगे. लेकिन वर्तमान में किसी का सपना तो साकार हुआ. पर उन्हें भविष्य में कई सवाल भी लटके नजर आते होंगे.

आप सभी मित्रों के बिचारों का यहाँ स्वागत है.

बचपन एक कहानी

आज अचानक हरिद्वार की बहुत याद आ गयी. तो आइये आज आप सबको कुछ अपने बचपन की तमाम यादों से जरा सा अंश एक कहानी की तरह सुनाती हूँ ...सुनोगे आप सब..? क्या कहा, हाँ...


तो ये बहुत समय पहले की बात है जब मैं छोटी थी व स्कूल में पढ़ती थी. तब मेरे बुआ-फूफा जिन्दा थे. उन लोगों ने सारी जिंदगी वहीं हरिद्वार में ही गुजारी और उनके बच्चे-उच्चे भी वहीं पढ़े-लिखे. फूफा जी वहीं भल्ला कालेज में प्रिंसिपल थे. दादूबाग के पास रहते थे. जब उन लोगों के पास गरमी की छुट्टियों में जाते थे तो हम बच्चों की पूरी टीम हरकीपौड़ी पर शाम को घूमने जाती थी व कुलचे, भटूरे और आलू की टिक्की का भरपूर आनंद लेते थे :) गंगा के पानी में मछलियों को आटे की गोलियाँ भी फेंककर खिलाते थे और कभी-कभी गंगा में डुबकी मार कर सब नहाते भी थे. और जहाँ पर घर था वहाँ पास में छोटी सी एक नहर थी तो हर सुबह तौलिया और कपड़े उठा के हम सभी नहाने के लिये उछलते-कूदते जाते थे और रस्ते में सड़क के किनारे लगे लाल-पीले जंगली फूलों को तोड़ते और सूंघते हुये एक दूसरे पर फेंकते और खिलखिलाते थे. दादूबाग के बागीचे से लीची और लोकाट भी सभी बच्चे चोरी किया करते थे. पकड़े जाने पर कहते थे कि जमीन पर से उठाये हैं. कभी-कभी लक्ष्मण झूला भी सब मिलकर दिन की ट्रिप में जाते थे. वहाँ उस हिलते पुल पर से गुजरना..सोचकर अब भी रोमांच सा होता है. और दूर पहाड़ी पर चंडी माता के मंदिर में सीढ़ियाँ चढ़कर दर्शन करने को भी जाते थे.