Tuesday 5 April 2011

छक्का कैसे बना ?

क्रिकेट के विश्व कप का फाइनल मैच - ०२.०४.२०११

आप सबको जानकर हैरानी होगी कि मैंने दो साल से टीवी नहीं देखा था केवल क्रिकेट देखने के चक्कर में प्रण तोड़ा था. देखते हुये फेसबुक पर बराबर दोस्तों के संग कमेंट्री जारी रही...उसका जज्बा कोई नहीं जान सकता..हूँ : ) लंकियों ने तो रन बना-बनाकर बहुत धमाचौकड़ी मचाई हुई थी. उससे कुछ मन में दहशत सी होने लगी थी. फिर जब भारत की टीम की बारी आई और खेल शुरू हुआ तो बीच-बीच में कई बार मैंने जोर से भगवान से प्राथना की तो फिर चौके भी बने ( ये वाकई में सच है ). राम जी, हनुमान जी, और किशन कन्हैया सभी को इन्वाल्व कर लिया...सभी को अपनी भक्ति का अहसास दिला रही थी. जोश में पता नहीं कितनी अटरम-शटरम बातें भी होती रहीं हम सबकी आपस में जिन्हें बताने में जरा झेंप लग रही है..हा हाहा. और आखिर में मेरी प्रार्थना ने कमाल कर दिया..जब चार रन की जरूरत थी तो जैसे ही मेरे मुँह से निकला 'अरे मार दे अब चौका' तो धोनी के हाथ का बल्ला जो घूमा..तो छक्का ही हो गया :))

धोनी अब जीत की हवा खा रहे हैं..और उनको इन सब बातों का जिंदगी में कभी पता भी नहीं चल पायेगा कि उनकी जीत के पीछे हमने भी कितने पापड़ बेले थे. उन घंटों में ब्लड प्रेशर भी अप एंड डाउन होता रहा..भूख-प्यास भी भूल गये...हाँ चाय जरूर पीते रहे थे :)))) एक फेसबुक वाली मित्र अपना जिताने वाला चश्मा भी बराबर पहने रही थी खेल के दौरान. हमने उनसे कहा कि वह किसी भी हाल में उस चश्मे को हमारे भारत की जीत के पहले ना उतारे...अगर नींद आ जाये और सोना चाहे तब भी नहीं..खेल के बीच में हमने भी दो बार अपना चश्मा बदल कर देखा कि कौन सा जीत के लिये सही रहेगा :)) खैर, इस सबका प्रभाव ये हुआ कि धोनी ने दूसरी टीम के छक्के छुड़ा दिये..सबको धोकर निचोड़ दिया..और बिश्व कप को सफाई से जीत लिया. सब लोग बोलो..धोनी की..जय हो ! हिन्दुस्तान...जिंदाबाद !


Monday 4 April 2011

मदर्स डे क्यों मनाते हैं ?

जैसे ही मदर्स डे आता है हर साल..उसके बारे में सवाल भी चारों तरफ से सबकी आँखों में दिखने लगते हैं. भारत के लोगों में बहुत कौतूहल रहता है और अपनी जिज्ञासा जाहिर करने लगते हैं. और ये सवाल हर बार, हर साल ही उठता है कि मातृ-दिवस यहाँ इंग्लैंड व अन्य पश्चिमी देशों में क्यों मनाया जाता है...क्योंकि सबका तर्क होता है कि माँ का प्यार तो हमेशा हर दिन अपने बच्चे के लिये एक सा ही रहता है तो फिर साल में एक दिन को ही क्यों उस प्यार की खातिर रखा गया है ? हाँ, बिलकुल सही है ये सवाल क्योंकि एक माँ का प्रेम पवित्र गंगा की अनवरत धारा के समान हमेशा बहता रहता है...तो भई, फिर साल का एक खास दिन ही क्यों इसके लिये सुनिश्चित किया गया है उसकी अहमियत जताने के लिये ? हालाँकि, अब भारत में भी पश्चिमी सभ्यता की नकल करके बहुत लोग इस दिवस को मनाने लगे हैं..लेकिन शायद बहुत से लोग इससे अनभिज्ञ हैं. जो मनाते हैं वहाँ पर वो शायद इसे एक फैशन की तरह ले रहे हैं..वैलेनटाइन दिवस, शादी की सालगिरह, और जन्मदिवस मनाने की तरह..क्योंकि अब इन्हें भी वहाँ के लोग मनाने लगे हैं.

र रिश्ते का महत्व हर दिन होना चाहिये..तो फिर साल के एक खास दिन ही क्यों उसको धूम-धाम से मनाते हैं ?

तो सब लोगों के सवालों के जबाब में मैं कुछ अधिक नहीं बस अपने सीधे-साधे लहजे में ही कुछ कहना चाहूँगी कि हर दिन, हर जगह ये मदर्स डे एक सा ही रहता है. और एक माँ का प्यार हर दिन निस्वार्थ ही होता है. हर माँ अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देने की कोशिश करती है. उन संस्कारों को और माँ के निस्वार्थ प्यार और त्याग को कुछ बच्चे याद रखते हैं और कुछ नहीं. लेकिन माँ के इस निस्वार्थ प्यार व त्याग को याद रखने को, एक खास तरह का आदर देने को उसके सम्मान में पश्चिमी देशों में एक पर्व यानि त्योहार जैसा बना दिया गया है.

जैसा कि आप सभी जानते हैं कि भारत में भी तमाम पर्व होते हैं. तो उदाहरण के तौर पर आप सभी अपने आप से पूछिये कि रक्षा बंधन का क्या महत्व है..क्यों मनाते हैं हम इसे ? इसलिये...क्योंकि ये है भाई-बहन के प्यार का प्रतीक, है ना..? बहन का प्यार भी तो निस्वार्थ होता है. तो बस यही बात है मदर्स डे की भी. ये माँ और बच्चे के आपस के प्रेम और त्याग का प्रतीक है. और इसीलिए मदर्स डे को एक विशेष त्योहार बना दिया गया है. बहनें भी कहाँ भाइयों से माँगती हैं रक्षा-बंधन पर..फिर भी भाई लोग उपहार देते हैं. क्यों मनाते हैं वो लोग राखी दिवस को ? क्या बहनें कहती हैं ? नहीं...इसलिये,क्योंकि परम्परा डाल दी गयी है इस दिवस की. उसी तरह से यहाँ मदर्स डे भी मनाया जाने लगा. लोगों ने माँ को आदर देने के लिये भी एक परम्परा चालू कर दी. कोई माँ नहीं कहती ना ही कहेगी शायद इस त्योहार को मनाने के लिये. बच्चे ही इसे परम्परा बना कर निभाने लगे हैं यहाँ.

हम माँ लोग कहाँ बच्चों से पूछते हैं कुछ हमें देने को या हमारे लिये कुछ करने को..अब देखो, मेरे बेटे ने कल मुझे कुछ पैसे दिये और डिनर वगैरा के लिये भी मुझे बेटा और बेटी ले गये. मैंने कहा कि मेरा प्यार तुम्हारे पैसे के लिये नहीं है. मुझे तुम्हारे प्यार व अच्छे वर्ताव की जरूरत है. पैसा जब लूँगी जब कोई मजबूरी होगी. फिर भी न लेने पर वह नाराज़ हो गया तो मुझे मन ना होते हुये भी लेना पड़ा..बस उसे खुश करने के लिये :)


औरत की शादी या बर्बादी ?

भारत की नारी वो शक्ति जो पहचान अलग बनाती है 
वह सीता, दुर्गा, लक्ष्मी जैसे नामों से जानी जाती है 
फिर भी संकीर्ण बिचारों का साम्राज्य यहाँ पर फैला है  
जो फन फैलाकर डसता है वो तड़प-तड़प रह जाती है.  
भारतीय समाज में बेटियाँ जब पैदा होती हैं तो उनके दिमाग में ठूँस-ठूँस कर भरा जाता है कि वह पराया धन हैं. जब भी और जहाँ भी वह शादी होकर जायेंगी तो ससुराल ही उनका अपना घर होगा. वह बचपन से ही एक अच्छी बेटी और बहिन बनने की कोशिश करती हैं और ससुराल में निभाने के लिये भी सभ्यता और संस्कार सीखती है. और फिर शादी के बाद ससुराल में आकर तमाम रिश्तों की जिम्मेदारी निभाती है. पर दोनों ही जगह उनका महत्व होते हुये भी वह परायी क्यों रहती है ? और कई बार उनके सम्मान पर भी ज्वलंत सवाल उठते हैं और कभी-कभी आग का रूप भी धारण करते रहे हैं. किन्तु हर बार इन सवालों को बुझा दिया जाता है.  
वाकई में नारी जीवन सुलभ नहीं..ये सच है तो बहुत कड़वा. क्योंकि परेशानी में होने पर उनके मन की चीत्कार और पुकार कोई नहीं सुनता और न ही सहायता के लिये कोई आता है...शादी के बाद उन्हें पराया धन कहकर माँ-बाप विदा कर देते हैं कि पति का घर ही उनका असली घर है..किन्तु यह कितना सही हो पाता है...मन ही मन में उनकी चीत्कार प्रतिध्वनि करती रहती है. और कितनी शर्मनाक बात है कि हम आज औरत के अधिकार की बात करते हैं. पर कोई बताये तो सही कि कौन से अधिकार ? माता-पिता के घर में पराया धन समझी जाती है..क़ानून बनने के बाद भी तमाम बेटियाँ पैत्रक सम्पति पर भी जोर नहीं रखती क्योंकि उन्हें समझाया जाता है कि उनके भाई ही उनके माता-पिता की देखभाल करेंगे और उन्हें उनकी ससुराल से जरूरत आने पर विदा कराके लायेंगे और मायके में उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखेंगे..किन्तु ये सब ढकोसलेबाजी है. आजकल ना तो भाइयों का उतना लगाव रहा है और ना ही वह अपनी बहिनों की उनकी परेशानियों में रक्षा करते हैं. और ना ही उनके पास समय है. खुद ही बहिनें अपने आप देखने आ जाती हैं. कई जगह तो बहिनें कुछ भी लेने की वजाय अपना ही पैसा खर्च करती हैं और माँ-बाप को भी रखती हैं. 
इस समाज में यह एक काले धब्बे की तरह सच है जो छुपाया नहीं जा सकता कि कितनी ही जगह नारी पर पढ़ी-लिखी होने के वावजूद भी अत्याचार होता है. एक लड़की अपने माता-पिता का घरबार किसी दूसरे परिवार के आश्वासन पर छोड़ कर आती है. एक खूँटे से खोलकर उसे दूसरे खूँटे से इस समाज के बनाये हुये नियमों पर बकरी या गाय की तरह लाकर बाँध दिया जाता है..एक नये संसार में नये लोगों के बीच यह सोचकर और भरोसा करके कि उसका पति और ससुराल वाले उसकी हर बात में रक्षा करेंगे. किन्तु यह अधिकतर सच नहीं होता. उससे काम भरपूर लेने के वावजूद भी उसे '' पराई बेटी '' कहकर रखा जाता है. और मायके वाले कहते हैं कि : '' बेटी अब ये तुम्हारी किस्मत रही. '' और अगर पत्नी में सभी गुणों के होने पर भी पति की नीयत बदल जाये तो वह क्या करेगी ? औरत मजबूरी में कितना सहती है ससुराल वालों के लिये..अपने पति के लिये कितना कुछ झूठ बोल जाती है. कुछ पति व दामाद बहुत स्मार्ट होते हैं..औरों के सामने बहुत चतुराई से व्यवहार करके उन लोगों का दिल जीत लेते हैं और सच को झूठ साबित कर देते हैं...फिर भी शादी की गाड़ी खिंचती रहती है.  
नारी को एक ऐसा अभिशाप बना रखा है अपने समाज में कि उसे अपनी स्थिति का खुद ही नहीं पता कि उसका वजूद क्या है. शादी के पहले माँ-बाप के घर को वह अपना कहती है तो उसे बराबर अहसास कराया जाता है कि वह पराया धन है..फिर भी उसकी अकल में नहीं आता. घर-भर का ख्याल रखना, पढ़ना-लिखना, घर का काम-काज सीखना व अच्छे संस्कारों को सीखना ताकि उसे अपने जीवन में कोई समस्या ना हो और ससुराल में भी उसे सम्मान मिले. लेकिन फिर पति के यहाँ आने पर अगर सुनना पड़े कि '' मैंने तेरे बाप का कर्जा नहीं खाया..तू क्या अपने बाप के यहाँ से ये घर लाई है या वो लाई है '' आदि कहकर उसे परायेपन का अहसास दिलाया जाता है..तो उसे पति के यहाँ कैसे अपनापन लग सकता है ? कितने समझौते करते हुये भी शादी एक ऐसा कड़वा घूँट है कुछ औरतों के लिये कि वह चाहें कितनी भी कोशिश करें ससुराल में सबको खुश करने को तो भी नहीं कर पाती हैं...सब सहन करती हुई शादी के बंधन को एक कड़वे घूँट की तरह ना ही उसे घूँट पाती है और ना ही थूक पाती है...और आपसी रिश्तों की कटुता बढ़ती जाती है. लेकिन पति का घर छोड़ कर उन ज्यादतियों से बचकर औरत कहाँ जाये ? ये सब वह जान बूझ कर क्यों सहती है ? एक दिन जिस इंसान का हाथ पकड़ कर वह आती हैं और जो शादी के समय उसका संरक्षण करने का दावा करता है बाद में उसके ही हाथों से मार खाती है..जिस मुँह से वह वचन लेते हैं अग्नि को साक्षी मानकर साथ निभाने का उसी मुँह से वह बाद में पत्नी को किलस कर गालियाँ देकर उसे कोसते हैं और उसका अपमान करते हैं. कुछ पुरुष उन्हें घर वालों के संग मिलकर भी सताते हैं. एक समय वह था जब नारी को हर यज्ञ में बराबर का स्थान और घर में गृह-लक्ष्मी का दर्ज़ा दिया जाता था..और उससे हर बात में सलाह-मशवरा लेकर काम किया जाता था..और सम्मान दिया जाता था. और अब कई पुरुष अपने उन रटे-रटाये अग्नि के फेरे वाले वचनों को भूल कर पत्नी से चुरा-छिपा कर मनमानी करते हैं. और अगर कोई ताड़ ले उनके अत्याचारों को तो अपनी पत्नी के विरुद्ध कहानी गढ़ कर उस पर झूठे / मनगढंत दोषारोपण करके दूसरों की निगाह में उसे ही कसूरवार ठहरा देते हैं. और पत्नी अवाक सी रह जाती है. पुरुष अगर अकेले रहकर गुजर करते हैं तो उनपर कोई उँगली नहीं उठाता..लेकिन अगर एक औरत अकेली रहकर कहीं गुजर करना चाहे तो समाज उसका जीना मुश्किल कर देता है. किसी पुरुष से निर्दोषता से बात भी करे तो उसपर बदचलन होने का इलजाम भी लगते देर नहीं लगती. अगर सोचिये, तो शायद यही कारण हो सकता है कि इस डर से पढ़ी लिखी औरतें भी अपने पति के संग उनकी ज्यादती सहते हुये एक गुलाम की तरह रहती है. और उनके माँ-बाप सोचते हैं कि उनकी लाडो बेटी ससुराल में रानी बनकर राज कर रही होगी..हाँ कुछ करती हैं जो बहुत किस्मत वाली होती हैं. जैसा मैंने कहीं सुना है कि कहीं तो किसान की बेटी भी सबको मुट्ठी में रखती है और कहीं जज की बेटी को भी पति के हाथों मार खानी पड़ती है. लेकिन हर हाल में अधिकाँश की दशा शोचनीय ही है. अगर समाज के तानों को झेलने की जिल्लत ना सहनी पड़े तो पता नहीं कितनी औरतें बिना शादी किये हुये आत्मनिर्भर होकर जीना पसंद करेंगी. शादी का ऐसा बंधन जो खुशी की वजाय उसके जीवन और अस्तित्व को झकझोर डाले तो इससे तो अच्छा है कि वह किसी तरह अपनी बसर खुद ही कर ले. इस दिखावे के बंधन का क्या फायदा जहाँ सच्चा प्यार व सहानुभूति मिलने की जगह उसका जीना ही दूभर हो जाये.
एक और खास बात है इस समाज की वो ये कि हर कोई लड़की यानि होने वाली बहू को तो स्वस्थ्य लेना चाहता है किन्तु लड़का अगर किसी बीमारी को भुगत रहा है तो कोई बात नहीं. लेकिन उस लड़की का क्या हो जिसका शादी के तुरंत बाद एक्सीडेंट हो जाये या किसी गंभीर बीमारी का शिकार बन जाये ? शायद उसे वो लोग भुगत लेते होंगे किसी तरह.
जिस देश में पवित्र नदियाँ गंगा, जमुना, सरस्वती और दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, गौरी जैसी देवियों की पूजा होती है. और उनके नाम पर लोग अक्सर अपनी बेटियों के नाम भी रखते हैं. बाद में वही बेटियाँ व बहिनें किसी की पत्नी, बहू, और माँ बनती हैं. लेकिन शादी के पहले माता-पिता के यहाँ भार होती हैं फिर पति के यहाँ जाकर '' पराई बेटी '' के नाम से जानी जाती हैं और बात-बात में अपमान सहती हैं. नारी की स्थिति कितनी दयनीय बना कर रख दी है इस समाज ने..अगर अपने पति को छोड़कर वह अपना अलग अस्तित्व कायम करती हैं तो समाज उन्हें नहीं जीने देगा और वह सबकी निगाहों में निरंतर प्रश्न बनी रहेंगी या उनकी भूखी आँखों का शिकार बनेंगी. इसीलिए पति को छोड़कर बदनामी के भय को न सह पाने के डर से वह कोई भी ऐसा-वैसा कदम ना उठाकर सब कुछ चुपचाप सहती रहती है.