Friday 30 July 2010

''नारी को क्यों भस्म होना चाहिये?''

शांत चित्त में एक चिंगारी सी भड़क पड़ती है जब किसी बात पर पीड़ित महसूस करते हुए भी अधिकतर नारियाँ चुप रहती हैं. मैं भी चारों तरफ का माहौल देख-भाल के सहम जाती हूँ कि कौन लोगों के मुँह लगे. लेकिन कुछ बातें जो नश्तर की तरह चुभ जाती हैं अन्दर ही अन्दर जो समस्त नारी जाति पर लागू होती हैं और जिन बातों को अब भी लोग जबरदस्ती करने/कहने पर तुले हुए हैं, तो मेरा मन कुछ समय के लिये अशांत सा हो जाता है. जिस बात से मन में एक ज्वाला सी धधकी उसे लिखने वाला एक पुरुष ही है.. ''स्वयं को स्वाहा कर, औरों के जीवन का प्रकाश बन.'' इस पंक्ति को पढ़ते ही मन बहुत दुखी सा हो गया, मन में चिंगारी सी भड़की. कोई इंसान नारी को स्वाहा करने की बात करता है ताकि वह एक शक्ति बन सके...तो पढ़ते ही मैं सोचने पर मजबूर हो गयी कि लोग क्यों हर समय नारी को आगे कर देते हैं स्वाहा होने को. ये रटी-रटाई सी पंक्तियाँ हैं जिनकी विस्तृत समालोचना किये बिना ही लोग कह देते हैं. जैसे कि वह कोई घास-फूस या समिधा-सामग्री हो जो आग में स्वाहा करने को बनी है. और फिर लोग उसे भस्म करके उससे शक्ति की अपेक्षा रखते हैं. वो तो वैसे भी युगों से इतना कुछ करती और सहती आई है कई रूपों में. बिना किसी के कहे ही वह अपने तमाम कर्तव्यों को निभाती आई है. और फिर एक तरफ तो उसे अबला कहा जाता है तो दूसरी तरफ उसे भस्म करके उससे शक्ति की आशा करते हैं. तो भई, उसे किस तरह भस्म होना चाहिये और किस तरह की शक्ति मिलेगी उसे भस्म करके ? मन ही मन में तो वह समाज के लोगों की किसी ज्यादती या रीतियों-कुरीतियों का शिकार बन कर भस्म होती ही रहती है. उसके बाद भी लोग पता नहीं क्या अपेक्षा करते हैं उससे. लोग जब उसे दुर्गा कहते हैं तो यह नहीं सोचते कि उसमे वो दैविक शक्ति नहीं है जिससे सीता जी जल गयीं थी..और कभी जब औरत के बलिदानों की बात चलती है कि ''आज की औरत सतयुग की सीता से भी अधिक अग्नि परीक्षायें देती है'' तो तमाम गहन धार्मिक प्रवृति के लोग इसे सीता जी का अपमान समझते हैं और भड़क पड़ते हैं कहते हुये कि सीता जी से आज की औरत की कोई समानता नहीं और तरह-तरह के उदाहरण देते हुये पूरी रामायण ही उठा लाते हैं बहस करने के लिये. तो अगर ऐसा है तो फिर आज के पढ़े लिखे लोग नारी के बारे में ये क्यों कहते हैं बिना सोचे समझे हुये कि ''स्वयं को स्वाहा कर, औरों के जीवन का प्रकाश बन.''

यह पढ़कर मेरे मन को लगता है कि नारी को लोग कोसने से बाज नहीं आते. समय बदला है, और वह पढ़ी-लिखी व समझदार है फिर भी समय-समय पर उसकी अवहेलना की जाती है और जरा-जरा सी बातों में मखौल उड़ाया जाता है उसका. अपने को बहुत बहादुर कहने वाली औरतें भी कभी अपनी गलती ना होने पर भी पुरुषों के मगरूर व्यवहार पर सहमी रहती हैं. औरत डर के कारण व पुरुष अपने बचाव में कहते रहते हैं कि अब समय बदल गया है..अब वह हालत नहीं रही औरत की..वह मजबूत है समझदार है, आदि-आदि. लेकिन यह बातें कितनी सही हैं ? और तुर्रा ये कि औरत को भस्म करके उससे शक्ति हासिल करने की भी बात की जाती है. अरे, उसे भी तो कभी पुरुष की इन्ही खूबियों की जरूरत हो सकती है जीवन में. तो कितने पुरुष हैं जो उसकी जरूरत के समय उसकी शक्ति बनते हैं..अधिकतर को तो जलन होने लगती है. और कितने ही औरत की उपेक्षा करके उसे सताते रहते हैं. औरत कोई घास-फूस या लकड़ी तो है नहीं जो उसे आज्ञा दी जा रही है कि ''स्वाहा हो जा'' और फिर ऐसा होने पर तो वह राख बन जायेगी और किसी काम की ना रहेगी..तो उसे अपनी स्वाभाविक मौत ही क्यों नहीं मरने दिया जाता..क्यों उसके लिये जीते-जी चिता सुलगा कर झोंकने का प्रयास करते हैं लोग ऐसी बातें करके ? कई बार तो औरत की इज्ज़त की बात करने वाले समाज के ठेकेदार खुद बुरी नज़र रखते हैं उसपर. और जो अपनापन दिखाने वाले लोग हैं वो उसपर मुसीबत आने पर निगाहें बचाकर बगलें झाँकने लगते हैं. ऊपर से जुर्रत ये कि उसे जीते जी भस्म भी करना चाहते हैं. क्यों...आखिर क्या बिगाड़ा है उसने किसी का..क्या उसे दर्द नहीं होगा...क्या उसे अपने तरीके से जीने का अधिकार नहीं है..?

वास्तव में लोगों की इस तरह की कही या लिखी बातें पढ़कर या विचार जानकर मन को बहुत पीड़ा होती है और लगता है कि नारी को समाज में बस दिखावे के लिये ही ऊँचा दर्ज़ा दिया जाता है लेकिन ''भस्म '' और ''स्वाहा'' या अन्य इसी तरह के तमाम शब्दों का इस्तेमाल करके उसे कोसा जाता है. अगर वह भस्म हो गयी तो कहाँ से ताकत देगी ?


No comments:

Post a Comment