Saturday 26 June 2010

वलदेव हलवाई

उन दिनों उस छोटे से कसबे में कुछ अधिक लोग नहीं रहते थे. हर कोई एक दूसरे को जानता था. मजहब के कोई झगडे नहीं थे. ना ही व्यापार में कोई कम्पीटीशन. मिलते जुलते हुए लोग एक दूसरे से हँसी मजाक करते थे और किसी भी समय एक दूसरे का स्वागत करने को तैयार रहते थे. ना कोई दिखावा, ना ही कोई समय का पाबंद किसी के यहाँ जाने का. कभी भी चले जाओ और लोग प्यार में बिछ जाते थे एक दूसरे के लिए....मिलते-जुलते दिल नहीं भरता था किसी का एक दूसरे से. लोगों के दिल बड़े थे खिलाने-पिलाने के मामले में. और उन दिनों उस कसबे में मिठाई की दुकानें भी अधिक नहीं थीं. और हलवाइयों के दोस्त लोग तो उनकी दुकान में मुफ्त की रबड़ी और रसगुल्ले नित्य ही झाड़ते रहते थे. लेकिन वह उन दिनों की दिलेरीपन की मिसालें थीं. तब जाने-माने घरों के बच्चों को भी दूकान पर आने पर हलवाई लोग कई बार मुफ्त में ही मीठा-नमकीन हाथ में पकड़ा देते थे. अक्सर ही ''अरे दद्दा इधर तो आओ, जरा देखो तो...अभी-अभी यह गुलाब जामुन बनी हैं खाकर तो बताओ कैसी हैं.'' या फिर ''अरे ताऊ कैसे हैं आप, और यह क्या बन रहा है?''..''अरे लल्ला कहाँ जा रहे थे ...आओ-आओ आप यह गरम-गरम इमरती तो चखकर बताओ और यह दो-चार बहू व बच्चों के लिये भी दोने में लेते जाओ.'' तो उस कसबे में इतने उदार थे हलवाई लोग अपने जान-पहचान वाले लोगों के लिये. लेकिन अब कहाँ वो बात रही ?


उनमे से एक हलवाई को जाना जाता था वलदेव हलवाई के नाम से. वह वहाँ पर नये-नये थे. एक छोटी सी दुकान से श्रीगणेश किया था. शुरुआत में तो उनकी दुकान इतनी अच्छी नहीं चली, क्योंकि पहले वाले नामी हलवाइयों के सामने उनकी कोई बिसात नहीं थी, ना ही नामवरी. और सुबह-सुबह हर दिन जब गरम-गरम जलेबी और समोसे हरी हलवाई और रामचंदर ताऊ के यहाँ बनते थे तो बड़े घरों के लोग वलदेव के यहाँ से नहीं बल्कि उन नामी हलवाइयों के यहाँ से ही मंगवाते थे. शाम को मिट्टी के कुल्हड़ों या सकोरों में खुरचन वाली रबड़ी आती थी बड़े लोगों के यहाँ तो वह भी उन्ही हलवाइयों के यहाँ से ही. वलदेव के यहाँ से नहीं. और वलदेव के यहाँ छोटी जगह होने से बाहर ही भट्टी पर दूध की कड़ाही में बराबर कोई नौकर खोया या रबड़ी बनाने को दूध को अपना पसीना पोंछते हुये चलाया करता था. ताज्जुब की बात नहीं कि उसमें पसीना भी टपक जाता हो. कितनी ही तो मक्खियाँ उसमे गिरकर मोक्ष को प्राप्त हुआ करती थीं हर दिन. तब उन दिनों वलदेव की दूकान पर गरीब लोग ही खरीदते थे जाकर. सड़क पर गुजरते हुये गाय और बकरियाँ भी मौके का फायदा उठाकर लड्डू, वर्फी, बालूशाही के थालों पर मुँह मारने से पीछे नहीं रहती थीं.


खैर, धीरे-धीरे वलदेव की भी किस्मत का सितारा चमका और लोगों ने उधर भी ध्यान दिया. एक कान से दूसरे कान में भनक पड़ी और उनके यहाँ भी लोगों की संख्या बढ़ने लगी. एक दिन ऐसा आया कि फिर औरों का नाम पीछे रह गया और हर सुबह शाम वलदेव हलवाई के यहाँ ही तांता लगने लगा. चार गज दुकनिया की वजाय अब उन्होंने स्टेशन के पास एक बड़ी दूकान खोल ली, जो बड़े मौके की जगह थी. इस बात को भी काफी साल हो गये हैं. अब तो वहाँ मिठाई-नमकीन के साथ-साथ उन्होंने एक रेस्टोरेंट भी चालू कर दिया उसी में ही. किस्मत की बात कि खाने वालों की भीड़ लग गयी. छोटा-बड़ा और गरीब-अमीर सबकी ही जबान पर लाला वलदेव का नाम था. वलदेव के बच्चे हुये तो उनमे से उन्होंने कुछ बेटों को उसी दूकान में कुछ पढ़ाने-लिखाने के बाद लगा दिया. और कई नौकर भी काम करने को लगा लिये. अब तो बस चांदी ही चांदी थी. उनका नाम चमकने लगा.


सुना है अब आधी रात तक दूकान बंद होने का नाम ही नहीं लेती. आस पास के गाँवों से जो भी आता है वहाँ ही जाता है. सभी बड़े घरों के लोग अब लाला वलदेव के यहाँ से ही मिठाई मंगवाना पसंद करते हैं. पीछे की तरफ रेस्टोरेंट में टेबिल और कुर्सियां डाल दीं हैं जहाँ बैठ कर लोग खाना खाते हैं. सामने की तरफ गद्दी पर काउंटर के पीछे लाला और उनके बेटे बैठते हैं जहाँ दुकान के सामने खरीदने वालों की लाइन लगी रहती है.


अब इन दिनों तो पैसे में लाला लोट रहे हैं. लेकिन पता नहीं लाला को यह बात पता है कि नहीं पर सुनने में आया है कि कई बार गाँव वाले खाना खाने के बाद पैसा ही नहीं देते. क्योंकि अब तक उनके यहाँ सिस्टम है काउंटर पर जाकर पैसा देने का. सो इस बात का फ़ायदा उठाते हुये कई नियतखोर बिना पैसा दिये हुये ही चलते बनते हैं. वह इस तरह कि वेटर से कहेंगे '' भैया हम जरा हाथ धो के आते हैं अभी, और फिर जाकर पैसा उन लाला को दे आयेंगे.'' वेटर इतनी देर में किसी और के लिये खाना लेने जाता है और वह इंसान हाथ धोने के बहाने नौ-दो-ग्यारह हो जाता है. ना वेटर को खबर ना लाला को. और वह गाँव वाला अपने साथियों में शान से ढींग मारता है की '' खाओ पियो चल देउ, लाला का नाम वलदेउ.''


उन लाला के पास इतना पैसा है कि उन पर वही बात लागू होती है की ''अगर कुआँ में से कुछ लोटे कोई पानी खींच ले तो वह कुआँ तो खाली नहीं हो जाता.'' तरस खाने की बात नहीं है लाला पर लेकिन भोले-भाले से गाँव वाले अब नियत के कैसे हो गये हैं यह सोचने की बात है. ऐसा सुनने में आता है कि अब तक तो वही ढर्रा चल रहा है. अब ये तो लाला की समस्या है वो आगे कुछ करना चाहेंगे इस बारे में या नहीं इसके बारे में कोई क्या कह सकता है.


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