Saturday 7 May 2011

एकमत होना एक समस्या

अगर आप सब इस बात से सहमत हैं कि जमाना बदल गया है तो इसका मतलब है कि लोगों का हर बात की अहमियत समझने का नजरिया भी बदल गया है. धर्म, रीति रिवाज, खान-पान और रहन-सहन के बारे में आजकल हर जगह लोग स्वतंत्रता चाहते हैं. कहीं पति नास्तिक है तो पत्नी नहीं..तो पत्नी मन में ही प्रार्थना करती रहती है परिवार के लिये. और कभी-कभी पति के बिचार बदल जाते हैं तो वो आस्तिक बन जाते हैं. वरना शादी के बाद भी अधार्मिकता में अक्खड़ ही रहते हैं.

किसी ने हाल में ही मुझसे कहा है कि मैं कुछ ऐसा लिखूँ कि भारत के समाज में जो समस्यायें हैं और उनसे जो बिखराव है लोगों में वो दूर हो जाये और उनमें एकता आ जाये. वो लोग राजनीति के बखेड़ों में पड़कर उनकी ही बातें करते रहते हैं किन्तु अपने संप्रदाय से जुड़ी धार्मिक बातों में रूचि नहीं रखते. तो मैं चकित रह गयी कि इतनी दूर रहते हुये मैं वहाँ के लोगों को क्या समझा सकती हूँ. तो उन कुछ मुद्दों में से एक ये था कि मैं भारत में किसी धार्मिक समारोह में शामिल होने के लिये उनके संप्रदाय के लोगों को वहाँ जाने को प्रेरित करूँ जहाँ तमाम लोग उसे मनाने जा रहे हैं...यानि वो सब उस धार्मिक समारोह में एक होकर भाग लें. क्योंकि लोग सहमत होकर भी वहाँ जाकर भाग नहीं लेना चाहते. तो ये सुनकर मुझे बहुत ताज्जुब हुआ. सोचने पे मजबूर हो गयी कि इंसान अपनों पर तो आजकल जोर नहीं रख पाता, उन्हें समझाने में दिक्कत होती है तो दूर रहने वालों को कोई कैसे समझा सकता है.


परिवार में आजकल बच्चों या पति पर भी जोर नहीं होता कि सब मिलकर किसी धार्मिक समारोह में भाग लेने कहीं चलें. किसमे कितनी इच्छा है और कितना उत्साह है इन बातों पर ध्यान रखना चाहिये और स्वेच्छा से काम होने चाहिये दबाब में नहीं. और फिर ये काम तो अपने देश में ही विभिन्न समुदाय के लोग खुद ही आपस की समझदारी से मतभेद दूर करके भी कर सकते हैं. जिन लोगों को मैं नहीं जानती और ना ही वो मुझे जानते हैं तो बिना उनके बिचारों को जाने हुये अपनी तानाशाही लादने का मुझे क्या हक है. और फिर दूसरी बात ये कि कोई मेरी बात क्यों सुनने व समझने लगा. धार्मिक व रीति रिवाज़ की बातों को कितना कोई निभाता है या नहीं अपने कुटुंब परिवार में ये लोगों के अपने बिचारों पर निर्भर करता है. किसी इंसान पर एक हद तक ही दबाब डाला जा सकता है वरना आपसी अनबन होने का डर रहता है. पहले बड़े लोगों की बातों को मानने को लोग तत्पर रहते थे पर अब कोई उनकी कही बातों को अहमियत नहीं देता. समय जो बदल गया है.


मैं यहाँ इतनी दूर हूँ. ये बातें मैं कैसे भारत में रहने वाले उन सब लोगों को समझा सकती हूँ...जब कि वहीं रहने वाले किसी अपने की कोई नहीं सुनता. वहाँ के समाज में मैं किसी को जानती तक नहीं व्यक्तिगत रूप से. ये आपस की बाते हैं धार्मिकता से सम्बंधित जिस पर लोगों को करने या न करने पर जोर नहीं डाला जा सकता. लोग आपस में ही सुलझायें तो बेहतर होगा. सम्लित परिवार में भी आजकल कहीं हिंदू बहू है तो कहीं क्रिश्चियन. माता-पिता की सेवा करवाने व उनके बिचारों को अपनी पत्नी पर लादने के लिये भी लोग इन दिनों शादी नहीं करते. आजकल हसबैंड माइंड नहीं करते कि पत्नी उन्ही के धर्म की हो. वो जो चाहती है करती है. शादी भी आपस का समझौता है. आज की पीढ़ी के लोग घर वालों, रिश्तेदारों या समस्त समाज को खुश करने की खातिर अपनी शादी नहीं करते. और लड़का-लड़की आजकल शादी के बाद धार्मिक व रीति रिवाज़ से सम्बंधित मसलों को खुद ही सुलझा लेते हैं. और किसी का भी हस्तक्षेप अपने जीवन के किसी निर्णय पर नहीं चाहते. आपस में ही तय कर लेते हैं कि वह किस बात की एक दूसरे को छूट दे रहे हैं.

जब किसी अवसर पर मूर्ति दर्शन कर पाओ मंदिर जाकर तब बड़ा अच्छा लगता है. लेकिन विदेश में रहते हुये ये सब सबके लिये संभव नहीं है. किन्तु भारत में तो हर जगह मंदिर हैं फिर भी कितने लोग रोज जाते हैं वहाँ ? और कुछ लोग तो घर में ही मूर्ति-स्थापना कर लेते हैं. लेकिन फिर भी सब सदस्य पूजा नहीं कर पाते मिलकर हर दिन...तो भारत में भी घर-घर की कहानी फरक है. धर्म का मसला बहुत व्यक्तिगत है...किसके दिल में क्या है...क्या बिचार हैं किस बारे में इस पर जोर नहीं. तमाम युवा पीढ़ी के लोग तो मन में भी धार्मिक आस्था नहीं रखते. सबसे बड़ा धर्म तो मानवता है. और सब अपना अच्छा बुरा समझते हैं. और मुझसे पहले न जाने कितनों ने इस तरह की समस्यायों पर लिखा होगा. कितने भारतीय लेखकों ने अपने बिचार लिखे होंगे. लेकिन फिर भी किसी का लिखा हुआ पढ़कर लोग उसे भूल जाते हैं या फिर कितने लोग हर लेख पढ़ना चाहते हैं और उन बातों पर अमल करना चाहते हैं. लेखक मात्र एक हँसी का पात्र बनकर रह जाता है जिसपर छींटाकशी हो सकती है यह कहकर कि :

''पर उपदेश कुशल बहुतेरे'' माइंड योर बिजिनेस वाली बात होगी...और कुछ नहीं.

जो लोग मुझे मान देते हैं, ये कहकर कि मेरे कुछ लिखने से शायद लोगों में बिखराव कम हो जाये या कुछ मुद्दों पर वो लोग संगठित हो जायें, उस मान की मैं कदर करती हूँ और खुशी होती है. लेकिन मैं कोई मसीहा तो नहीं. क्या कहकर या करके किसी को समझाया जा सकता है. दुनिया भर के लोगों ने जो समझाने की कोशिश की होगी लेख लिखकर या किसी समस्या पर चर्चा करके अन्य लोगों को फिर भी असर नहीं हुआ. तो फिर उन्हीं बातों पर पता नहीं कहाँ-कहाँ दुनिया भर में फैले भारतीय लोगों को संगठित करके समाज की खुशी के लिये समझाना या ऐसे बिचारों को थोपना, जिनका मैं पास रहने वालों पर भी प्रभाव नहीं डाल सकी, मेरे लिये एक सपना है. अब क्या मैं कोई अनशन करूँ अन्ना हजारे की तरह भारत आकर ? और वो तो सरकार से एक शिकायत थी..राष्ट्र के लिये था और लोकपाल बिल का खाका खींचा गया फिर भी अब तक खटाई में पड़ा है. लेकिन ये कदम तो सामाजिक मुद्दों के लिये उठाने को पूछा जा रहा है. जहाँ अनशन करके लोगों की बिचारधारा बदलने की मांग रखी भी जाये तब भी कौन-कौन परवाह करेगा उस माँग की.


हर कोई अपने आप ही जानता है कि परिवार व समुदाय में क्यों बिखराव है और उसे कैसे दूर किया जा सकता है. मैं किसी की आलोचना नहीं कर रही..सिर्फ आज के युग की वास्तविकता से परिचित करा रही हूँ. और इस तरह के तमाम लोगों से मिलकर ही हमारा आज का समाज बनता है. और उस समाज में जो लोग रह रहे हैं वो कितने नजदीक हैं, क्या बिचार हैं उनके आदि बातों पर विमर्श करके किसी भी सामाजिक समस्या को स्वयं सुलझायें एक दूसरे की भावनाओं को समझते व कदर करते हुये तो बेहतर होगा. राष्ट्र व समाज से जुडी समस्यायें बड़ी विकट होती हैं और उन्हें उसी देश में रहने वाले लोग सुलझा सकते हैं. या वहाँ के तमाम प्रभावशाली लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि कहाँ क्या हो रहा है और उसकी नब्ज़ कहाँ पर पकड़नी चाहिये.


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