Sunday 5 June 2011

जल है जीवन-धन

जल जीवन का आदि और अंत है - इंसान के जीवन का मूलतत्व है. और केवल इंसान ही नहीं...सारी सृष्टि ही इस पर निर्भर है. पेड़-पौधे, हर जीव-जंतु व पशु-पक्षियों के प्राणों का ये आधार है. केवल भारत के क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में अब इसका अकाल पड़ा है यानि कि इसकी कमी हो रही है; और कितनी ही जगहों में पेय जल दूषित पाया जा रहा है. लेकिन जहाँ इसकी कुछ अधिकायत है तो वहाँ किफ़ायत नहीं. कुछ लोग इसे बेफिजूल खर्च करते हैं और बिना किसी पाबन्दी के नल आदि को कई बार बहने देते हैं.


ये हँसती-मुस्कुराती हुई प्रकृति अब धीरे-धीरे उदास सी दिखने लगी है. इतराकर शोर मचाकर बहने वाली नदियों की वेगवती धारायें अब कमजोर पड़ने लगी है. लबालब भरे हुये हिलोरें लेते हुये पोखर व तालाब अब सूखे पाये जा रहे हैं. लहलहाते हुये जंगल व उपवनों में अब वह पहले वाली हरियाली और घनेपन का अहसास नहीं होता. पेड़-पौधे मुरझाकर मर रहे हैं. पशु-पक्षियों की नस्लें धरती से मिटने लगी हैं इसमें जल की कमी का हाथ है और प्रकृति का बदलता रूप जिसकी गोद में ये सब चहचहाते हैं और खेलते हैं वो अपनी सुंदरता खोने लगी है. इस तरह से धरती का सीना एक दिन बिलकुल सूख जायेगा और तब इस सृष्टि में कोई जीवन नहीं बचेगा. और वह, जिसके सहारे हम बैठे हुये हैं..यानि इस सृष्टि का चित्रकार, चुपचाप कहीं मजबूर सा बैठा हुआ है कुछ भी करने में असमर्थ हो रहा है तो हमें ही कुछ करना चाहिये...सोचना चाहिये.


और तब बस यही उपाय समझ में आता है कि जल की त्राहि-त्राहि करते हुये संसार को बचाने के लिये हमें केवल अपने ही लिये नहीं बल्कि अपने समस्त देश व सारी दुनिया की भलाई के बारे में सोचना चाहिये. और इस जीवन-धन जल को बहुत किफ़ायत से खर्च करना चाहिये. ये मेरा सबसे विनम्र निवेदन है. धन्यबाद.


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