Sunday 1 May 2011

नयी पीढ़ी, नया परिवेश

नयी कौम है नया जमाना, और सबकी है एक कहानी

बच्चों की सोच बदल गयी, सब करते अपनी मनमानी.


कितने ही लोगों से सुनने में आता है कि आजकल के बच्चे कुछ और ही तरीके से सोचने लगे हैं. उन्हें ये ख्याल अच्छा नहीं लगता कि माता-पिता ने उन्हें अपने बुढ़ापे का सहारा बनने के वास्ते अपने स्वार्थ के लिये पैदा किया है. भारत व विदेशों के बच्चों की सोच अब करीब-करीब एक सी हुई जा रही है. अधिक बंधन लगाने से माता-पिता को डर रहता है कि कहीं उन्हें खो न दें यानि कहीं वो अलग ना रहने लगें या बोलना ही छोड़ दें उनसे. इसलिये बच्चों से उन्हें जरा दब कर रहना पड़ता है. वो जमाने गये जब बड़े लोग उन्हें उपदेश दे सकते थे और वो समझदारी से सुनते थे और बच्चे फिर उन बातों पर अमल करते थे. अब तो बड़े भी उनसे कुछ कहते डरते हैं. पहले बड़े सलाह देते थे और अब बच्चे सलाह लेते नहीं बल्कि देने लगे हैं. पहले के बच्चे पूछते थे कि 'ये काम करना ठीक रहेगा या नहीं' , या 'क्या हम वहाँ चले जायें ठीक होगा या नहीं ?' लेकिन नयी पीढ़ी के कहते हैं कि 'हम ये करने जा रहे हैं ' या 'हम वहाँ जा रहे हैं '( कभी-कभी तो वो भी कहना जरूरी नहीं समझते ) और ये ऐलान वो अचानक कभी भी कर सकते हैं. अपने को दुनियादारी की हर बात में बहुत होशियार समझते हैं. और कभी उनसे घर में हेल्प लेने का प्लान बनाओ तो पता चलता है कि वो पहले से ही अपने पार्टनर या फ्रेंड्स के साथ कोई और प्लान बना चुके हैं. अपने दोस्तों का साथ देने को घर में हेल्प देने का प्लान कैंसिल कर देते हैं. दोस्तों को माता-पिता से अधिक अहमियत देने लगे हैं. क्योंकि उन्हें घर में किसी की परवाह नहीं. उनका मन क्या करता है करने को बस इस बात की परवाह करते हैं. दबाब डालने या समझाने पर वो बोर हो जाते हैं या बीच में ही नाराज़ होकर चले जाते हैं पूरी बात बिना सुने.


और बेटे अगर शादी शुदा हैं तो उनकी बीबियों को घर की सफाई सुथराई करना नहीं भाता है. तो या तो बेटे करते हैं या फिर माता-पिता. आजकल की सासें तो वैसे भी बहू के आने पर उनसे सब काम नहीं लेतीं. वो इतनी एक्टिव रहना चाहती हैं कि तमाम काम खुद ही कर लेती हैं. लेकिन जब बहू अपनी जिम्मेदारी किसी भी काम की न समझे तब बहुत मुश्किल हो जाती है. बहू से सास-ससुर डर के मारे केवल इशारे से ही कहते हैं किसी काम के लिये कभी तो वोह समझ के भी समझना नहीं चाहतीं. कि देखो तुम कुछ भी कहो हम पर तुम जोर नहीं रख सकते हम अपनी मनमानी करेंगें. और अगर किसी का अकेला बेटा है और साथ रहता है माँ-बाप के साथ शादी के बाद भी तो भी बहू को अखरता है. उसे तो सास के रूप में एक नौकरानी मिल जाती है लेकिन सास को और अकेलापन...क्योंकि अब बेटा भी उतना नहीं बोलता माँ से. और माँ अपना दर्द सीने में छिपाये रहती है कि कुछ कहने से कहीं बेटा को बुरा न लग जाये और अलग ना रहने लगे. काम के बारे में नयी बहुयें सोचती हैं कि वह बाहर काम करती हैं. उन्हें नहीं पता कि एक दिन सास भी काम पर जाती थी और उसके बाद घर की पूरी ड्यूटी भी करती थी सातों दिन. लेकिन नयी पीढ़ी की बहुयें सुपरमार्केट से खाने की चीजें फ्रिज व फ्रीजर में भर लेती हैं, सफाई के बारे में बहुत आलसी...उन कामों को करने की वजाय सहेली से मिलने खिसक लेती हैं. लेकिन सास अपने जमाने में घर का काम पूरा निपटा के तब मिलती थी सहेलियों से. बहुत अंतर है, है न ?


और आजकल वाली तो बाहर का खाना खाने को हर समय तैयार रहती हैं. घर में खाना सास तैयार किये बैठी है और वो लोग ऐलान कर देते हैं बाहर का खाना खाने को. काम करके सास चाहें कितना ध्यान रखे बहू का और लाड़-प्यार करे उसे अपनी बेटी मानकर पर उससे एक बेटी की तरह की हेल्प नहीं मिलती. वीकेंड का इंतज़ार करते हैं तो बहू बिना बताये हर वीकेंड का प्लान बना चुकी होती है. सारा दिन के लिये आउट. बेटे अपनी पत्नियों की हर बात से सहमत रहते हैं. साल के किन्ही खास अवसरों के अलावा माँ-बाप के संग कहीं जाना भी नहीं अब पसंद करते वो लोग. तो सिचुएशन ये होती है उन माँ-बाप के लिये कि अपने पास कभी-कभार बिठाकर उनसे कोई बात तो करना दूर उनकी तो शकल देखना भी अधिक नसीब नहीं हो पाता वीकेंड पर भी. और बहुयें जब घर पर रहती हैं तो अपने कमरे में बंद रहकर सारा दिन टीवी या किसी और मनोरंजन में व्यस्त रहती हैं. सास का डिप्रेशन और बढ़ जाता है. और बेटे महसूस ही नहीं करते कि उनकी पत्नी कुछ देर उनकी माँ के पास भी बैठे. इस तरह की समस्यायें कितने ही माता-पिता व सास-ससुर के लिये जटिल होती जा रही हैं. फिर भी माता-पिता अपने बहू बेटे को दिलो-जान से चाहते हैं..और हर समय उनका भला मनाते हैं.

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