Friday 26 August 2011

प्राण जायें पर धन नाहीं

प्राण जायें पर धन नाहीं, औरन की फिकर कछु नाहीं ....

कितने दुख की बात है कि अपने ही देश के लोग धन के लालच में इतना होश खो चुके हैं कि चाहें उनके ही देश का हित करने वाले की जान तक चली जाये. अंग्रेजों ने जब देश पर शासन किया था अपना उल्लू सीधा करने के लिये तो उन्हें बुरा-भला कहते हैं लोग अब तक. ठीक है वो तो पराये थे लेकिन अपने देश के लोग खुद इतने स्वार्थी बन रहे हैं कि देश के अन्य लोगों के हित में अनसुनी करके कान में तेल डाल लिया है. हाय रे मानव हृदय ! कितनी शर्मनाक बात है...किसी ने भी ख्याल नहीं किया कि बाबा अपनी जान से भी हाथ धो सकते थे अगर उन्होंने अनशन ना तोड़ा होता. उनके उपवास से उनके जीवन-मरण का सवाल पैदा हो गया पर जिनके हृदय पिघलने चाहिये थे वो पाषण ही बने रहे. क्या इसी दिन को देखने के लिये आजादी चाही थी ? इस देश में लोग सिर्फ सपनों में रह कर बातें करते हैं..असल में सबको अपनी-अपनी फ़िक्र है..सारे देश की नहीं. जो भी देश के लिये आगे बढ़कर कुर्बानी देने को तैयार होता है उसकी बलि लेने को तैयार हो जाते हैं लेकिन उसके एवज में कुछ करना नहीं चाहते. सिर्फ दिखावे के लिये दूसरे देशों के आगे बड़ी-बड़ी देश-प्रेम की भावनाओं की बातें करते हैं. अरे, देश तो इसमें रहने वाले इंसानों से ही बनता है. लगता है कि भारतवासियों के मन में ही देश-प्रेम की ज्वाला भडकती है..उनके कर्मों में नहीं.

आशा है कि अब बाबा की हालत में और सुधार आया होगा....


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